उपनिषद
जिस प्रकार मकड़ी अपने भीतर से ही जाला उगलती है और फिर स्वयं ही निगल लेती है, जिस प्रकार पृथ्वी से वनस्पतियाँ उत्पन्न होती है, जिस प्रकार जीवित शरीर से केश, रोम, नख आदि उपजते हैं वैसे ही उस ब्रह्म से यह सारा संसार उत्पन्न होता है। जो उस निर्बीज तत्व ब्रह्म को जानता है वह निर्बीज हो जाता है। वह जन्म नहीं लेता, मरता भी नहीं। मोह नहीं पाता, भेदा नहीं जाता, जलता नहीं, छेदा नहीं जाता, कापता नहीं और न कुपित होता है। कमल की तरह निर्लेप रहता है। वह सत्य के साथ रहना चाहता है। आत्मा ही सत्य हैं । " सब कुछ ब्रह्म है, ऐसा जान लेने पर इन्द्रिया के ऊपर स्वयमेव संयम प्राप्त हो जाता है। इसका बारम्बार अभ्यास करना चाहिए। नियम पूर्वक ऐसा एक ही प्रकार का विचार करना परम आनन्द रूप है ।"
"ब्रह्मवृत्ति मे रहने से पूर्णता प्राप्त होती है। इसलिए इसी वृत्ति मे रहकर पूर्णता का अभ्यास करना। जिनकी यह ब्रह्मवृत्ति लगातार वृद्धि को प्राप्त होती हुई परिपक्क हो गई है वे श्रेष्ठ ब्रह्मत्व को पाते है । पर अन्य जो केवल जिह्वा से बोलते भी है ब्रह्मत्व को प्राप्त नहीं होते ।"
आत्मा परमात्मा का ही स्वरूप है। मल विक्षेप भाव और विकारों के कारण वह अपने आपको देह समझने लगता है। देह भाव में निमग्न हो जाने के कारण उसकी क्रियाएं, चेष्टाएँ एवं आकांक्षाएं भी निम्न श्रेणी की हो जाती हैं और उनकी प्रबलता होने पर नीति, अनीति का भेद भी दृष्टि से ओझल हो जाता है। जीव के पाप वृत्ति होने का कारण यह अज्ञान ही है। देह को वाहन और साधन न समझ कर उसे हीं अपना आपा मान लेने के कारण मनुष्य देह को सुखी और सम्पन्न बनाने में इतना तन्मय हो जाता है कि उसे लक्ष की भी विस्मृति हो जाती हैं और मानव जीवन जैसे अमूल्य अवसर को युहीं गवाँ देता है। ब्रह्मविद्या का प्रधान शिक्षण देह और आत्मा का भेद समझना है और इस भावना को पुष्ट करना है कि देह के लाभ एवं सुखों को आत्मा के लाभ एवं सुखों से अधिक महत्व न दिया जाय।
इस सम्बन्ध में उपनिषदों में जो महत्वपूर्ण चर्चा की गई, है उसकी एक झांकी नीचे के कुछ उदाहरणों से की जा सकती।
"यह देह मिट्टी का घड़ा है और चर्म से मढ़ दिया गया है। यह सदा मलमूत्र से युक्त रहता है, भीतर दुर्गन्ध भरी है। घृणित वीर्य और रज से इसकी उत्पत्ति हुई है। किसी दिन यूँ ही नष्ट हो जाने वाला है। ऐसी घृणित देह में भी यदि कोई मूर्ख मनुष्य प्रेम करता है तो वह नरक से प्रेम करने वाला ही होगा।"
जब तक शरीर है तब तक निश्चय ही सुख और दुःख का निवारण नहीं हो सकता है।
बड़े-बड़े समुद्र सूख जाते हैं, पर्वत टूट-फूट जाते हैं, पृथ्वी डूब जाती है, देवता भी स्थिर नहीं रहते, ऐसे नाशवान संसार में विषय भोगों को लेकर क्या किया जाय! विषय में डूबे हुए प्राणियों को बार-बार जन्म मरण के चक्र में घूमना पड़ता है; इसलिए हे मुनिराज! अन्धेरे कुएं में मेंढक की तरह पड़े हुए मेरे जीव का उद्धार कीजिए। हे भगवन् घृणित मैथुन से उत्पन्न हुआ यह अपवित्र शरीर यदि आत्म ज्ञान से रहित हो तो इसे नरक ही समझना चाहिए। यह देह मूत्र द्वार से निकला है, हड्डियों से चिना है, मांस से लिपा है, चमड़े से मढ़ा है और विष्ठा मूत्र, वात, पित्त, कफ, मज्जा, मेद आदि मलों से भरा है । ऐसे शरीर में रहने वाले मुझ जीव को कल्याण मार्ग बताइए और शरण दीजिए ।
उपरोक्त अभिवचनों में शरीर की नश्वरता और तुच्छता का प्रतिपादन किया गया है ताकि मनुष्यों की देह-सुख की ओर अत्यधिक की हुई प्रवृत्ति पर अंकुश लगे और वह इसकी तुच्छता और आत्मा की महत्ता की तुलना करके आत्मलाभ के लिए प्रयत्नशील हो ।
कुटुम्बियों के मोह संबंध, स्त्रियो के प्रति काम दृष्टि होने के कारण भी मनुष्य अनेक दुष्कर्म करते देखे गये हैं। इस आकर्षण एवं मोह में व्यक्ति अनुचित रूप से ग्रसित न होने पावे इसलिए उपनिषदकारों ने स्त्रियों में काम बुद्धि रखने और कुटुम्बियो के लिए कर्तव्य बुद्धि तक ही सीमित न रहने की मोह प्रस्तता का निषेध किया है । इस सबंध मे कुछ अभिवचन इस प्रकार मिलते है।
मांस की बनी हुई इस चलती-फिरती पिटारी रूपी स्त्री के शरीर मे नस हड्डिया और ग्रन्थिया ही भरी हैं। भला उसमें भी क्या सुन्दरता है? जरा इसकी चमड़ी, मास, खून, आँख आदि को अलग अलग करके तो देखो इनमें से क्या सुन्दर है?, ये काढे हुए बाल, ये कजराली आँखें भयानक अग्नि शिखा की तरह हैं, वे मनुष्य को तिनके के समान जला देती है। देखने में सुन्दर होते हुए भी वे नरक रूपी अग्नि की लकड़िया है। कामदेव रूपी बहेलिये ने मनुष्य रूपी पक्षियों को फंसाने के लिए यह स्त्री रूपी जाल पाश फैलाया है। इन दुखो की श्रृंखला रूप नारियो से तो भगवान ही बचावे।
आत्मा के आनन्द को जानकर ज्ञानी पुरुष मुक्त बन जाते हैं। दूध में घी के समान सर्वत्र व्याप्त आत्मा, ज्ञान और तप द्वारा प्राप्त किया जाता है। यह आत्मा ही ब्रह्म है - यही परमपद है ।
"मैं देह हूँ," ऐसा संकल्प ही संसार कहलाता है, ऐसा संकल्प ही बन्धन है, यही दुख है, यही नरक है, इसी को हृदयं की गांठ कहते हैं, यही अज्ञान है। यही पाप है। यही तृष्णा है। काम क्रोध बन्धन, दुःख, दोष आदि जो कुछ भी बन्धन रूप है यह संकल्पों का समूह ही है । हे सौम्य, यह सब मानसिक ही है ऐसा तुझे जान लेना चाहिए।
मेरी अपनी माया गलित हो गई है, मेरी अहन्ता अस्त हो चुकी है। मैं विशाल सुख से पूर्ण तथा ज्ञान स्वरूप हूँ। मैं बद्ध मुक्त का अद्भुत स्वरूप हूँ। मैं विवेक बुद्धि से आत्मा को अद्वैत जानता हूँ तो भी बंध मोक्ष आदि व्यवहार जान पड़ते हैं। मेरी दृष्टि से प्रपंच दूर हो गया है तो भी वह सत्य जैसा ही जान पड़ता है। बुद्धिमान मनुष्य विष और अमृत को देखकर जिस प्रकार विष का त्याग करता है वैसे ही आत्मा को देखकर मैं अनात्मा का त्याग करता हूँ ।
कुल, गोत्र, नाम, रूप, जाति आदि का अस्तित्व तो स्थूल देह में होता है। मैं तो स्थूल रूप से भिन्न हूँ इसलिए उनमें से किसी से मेरा संबंध नहीं है । मैं आनन्द स्वरूप हूँ - इससे मुझे दुख नहीं है । वे सब केवल अज्ञान से ही जान पड़ते हैं । 'तीनों देहों से भिन्न हूँ । शुद्ध चैतन्य हूँ, जिसे ऐसा निश्चय हो गया हो और जो परमानन्द से पूर्ण हो गया हो वह जीवनमुक्त कहलाता है। जिसमें कुछ भी अहम् भाव शेष नहीं है, जो आत्मा रूप ही शेष रहा हो, आसक्ति से छूट गया हो, नित्यानन्दरूप होकर प्रसन्न रहता हो, चिन्ता रहित हो, हमारा कुछ है ही नहीं ऐसा मानता हो, वह जीवनमुक्त कहलाता है । मुझे सन्ताप नहीं, लाभ नहीं, मेरे लिए कोई मुख्य नहीं, कोई गौण नहीं, मुझे कोई भ्रान्ति नहीं, कोई गुह्य नहीं, कोई कुल नहीं, मेरा तू नहीं है और मैं तेरा नहीं हूँ, मैं ब्रह्म हूँ, मैं चैतन्य हूँ, जिसे ऐसा निश्चय हो गया है वह जीवनमुक्त कहलाता है।
इस आत्मा अर्थात् ब्रह्म में लोक, लोक स्वरूप में नहीं हैं । माता, माता रूप में नहीं हैं, पत्नी पत्नी रूप में नहीं हैं, चाण्डाल चाण्डाल रूप में नहीं है, भील भील रूप में नहीं हैं, संन्यासी संन्यासी रूप में नहीं है। आत्म चिन्तन को ही उपनिषदकारों ने ईश्वर की पूजा माना है। आत्म चिन्तन की प्रत्येक क्रिया, उपासना के कर्मकाण्ड का स्थान स्वयमेव ग्रहण कर लेती है। आत्म चिन्तन के आधार पर अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होने वाले व्यक्ति की आत्मा दिन-दिन परमात्मा के निकट पहुँचती जाती है।
यह स्थिति जब परिपक्क होने लगती है तो शरीर को तुच्छ मानने की अपेक्षा फिर उसे यज्ञ रूप समझना होता है और देह में ही सारे देवताओं को अवस्थित देखते हुए उसे देव मन्दिर स्वीकार करना होता है। उपनिषदों की ब्रह्मविद्या के अनुसार उच्च स्थिति का ब्रह्म परायण साधक इसी स्थिति को प्राप्त करता है । यथा-
उस आत्मा का निरन्तर चिन्तन ही ध्यान है । सभी कर्मों का त्याग आवाहन है। निश्चल ज्ञान ही आसन है। मन का लगाना अर्ध्य है । आत्माराम की दीप्ति आचमन है। अन्त:ज्ञान ही अक्षत है । चिद् का प्रकाश ही पुष्प है। स्थिरता ही प्रदक्षिणा है | सोहम् भाव नमस्कार है। सन्तोष विसर्जन है। यही भाव मोक्ष के इच्छुकों को सिद्धिप्रद है। निश्चिन्त अवस्था उसका ध्यान है, सर्व कर्म दूर करना उसका आवाहन है, निश्चय ज्ञान ही आसन है, नित्य का प्रकाश और अमृत रूप वृत्ति ही स्नान है। ब्रह्म के समान भावना ही चन्दन है, दर्शन के स्वरूप में स्थिति अक्षत है, चैतन्य की प्राप्ति पुष्प है, चैतन्यं रूप' अग्नि का स्वरूप ही धूप है, चैतन्य रूप सूर्य का स्वरूप दीप है। परिपूर्ण चन्द्रमा के अमृत रस से एकात्मता करना ही नैवेद्य है। निश्चलता ही प्रदक्षिणा है। 'मैं वही हूँ' यह भावना ही नमस्कार है, मौन ही स्तुति है, और सर्व प्रकार का सन्तोष ही विसर्जन है। जो इसको जानता है वह ब्रह्मरूप हो जाता है।
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