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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा

याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा: उपनिषद

 याज्ञवल्क्य मैत्रेयी संवाद





महर्षि याज्ञवल्क्य की दो पत्नियां थीं। ब्रह्मवादिनी मैत्रेयी और कात्यायनी । कात्यायनी का नाम गार्गी भी था। सामान्य स्त्री की भांति कात्यायनी को सन्तान और धन-दौलत की बड़ी चाह थी और यह सब उसके घर में मौजूद था। ब्रह्मवादिनी मैत्रेयी ऋषि के आश्रम में ब्रह्मविद्या सीखने पहुंची थी। उसे सांसारिक धन-दौलत की बजाय अमर होने की बड़ी लालसा थी ।
जव याज्ञवल्क्य अपना घर और आश्रम छोड़कर तपस्या करने जाने लगे, तब उन्होंने आत्म ज्ञान की साधिका ब्रह्मवादिनी मैत्रेयी से कहा, "जीवन का परम लक्ष्य पाने के लिए अब में घर-वार छोड़कर जा रहा हूं। पर इससे पहले तुम्हारे निर्वाह की व्यवस्था के लिए कात्यायनी और तुम्हारे बीच धन सम्पदा का बंटवारा करा दूं।" वे बंटवारा करने बैठ गए और दोनों पत्नियों को पास बुला लिया और अपना अभिप्राय बताया ।
यह सुनकर मैत्रेयी बड़ी सरलता से याज्ञवल्क्य से कहने लगी, ""यदि सारे संसार की धन दौलत मुझे मिल भी जाए तो क्या मैं उससे अमर हो जाऊंगी ? इसलिए जिस चीज के पाने पर मैं अमर न हो पाऊं, उसको लेकर क्या करूंगी? मेरे प्रियतम, अमर होने की जिस लालसा को लेकर तुम तपोवन जा रहे हो, वह तुम मुझे भी दे जाओ।" इतना कहकर मैत्रेयी ने अपने भाग की भी सारी सम्पत्ति कात्यायनी को सौंप दी। याज्ञवल्क्य ने तब मैत्रेयी से कहा, "मैं अमर होने की जिस लालसा से घर छोड़कर जा रहा हूं, तुम्हारी कामना भी उसी ब्रह्मज्ञान को पाने की है। जिस वस्तु से तुमको प्यार है, वही मुझे भी अच्छी लगती है। लो, मैं वह सारा ब्रह्मज्ञान तुमको सौंपकर तपस्या करने शान्तिपूर्वक निकल जाऊंगा । अब तुम उस उपदेश को ध्यानपूर्वक सुनो और उस पर मनन तथा आचरण करना ।" महर्षि ने तब जो उपदेश दिया था, वह इस प्रकार है : “हे मैत्रेयी ! इस संसार में पति-पत्नी, माता-पुत्र, भाई भाई, भाई-बहिन, सन्तान तथा कुटुम्बीजन सब एक दूसरे से सुख पाने की कामना से परस्पर प्रेम करते हैं। उसमें दूसरे को सुख देने की भावना मुख्य नहीं होती। सुख की कामना का केन्द्र होने के कारण ही प्रत्येक पदार्थ या प्राणी दूसरे को प्रिय लगता है। इसमें परोपकार की भावना गौण तथा स्वार्थ ही प्रधान होता है।"
" हे मित्रा की पुत्री ! ब्रह्मज्ञान, क्षात्रशक्ति, धन-सम्पदा, साथी-संगी, बेटे-बेटियां, विद्वान और प्राणियों से प्रेम भी हम अपनी आत्मा को सुखी व सन्तुष्ट करने के लिए ही करते हैं। वैसा न करने पर हमारी आत्मा को पीड़ा पहुंचती है और उसी दुःख को दूर करने में हम लोग जुट जाते हैं। अपनी जिस आत्मा को सुख पहुंचाने में हम सारा जीवन पूरी शक्ति से लगे रहते हैं, उस आत्मा के स्वरूप को पहचानना ही हमारे जीवन का लक्ष्य है।इसको जान लेने पर मन के सारे तर्क-वितर्क, रोग और चिन्ता दूर हो जाते हैं। मैत्रेयी ! इसी तत्वज्ञान को तुम ग्रहण करो, मानो, भली-भांति सुनो। इसी में तुम्हारे जीवन की सफलता है और मानव जीवन का रहस्य निहित है। यह सारा जान लेने पर मन की सारी गांठ अपने आप खुल जाती हैं।”
अपनी बात को स्पष्ट करते हुए ऋषि याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा-“देखो, इस शरीर या संसार में आत्मा ही सत्य है और समग्र ज्ञान और पदार्थ उसी आत्मा की अमरता को जानने के लिए साधन मात्र हैं। गौण हैं। आत्मा के गुणमात हैं। इसलिए आत्मा को ही मानो, जानो व पहचानो । यही शाश्वत सत्य है । यही रहस्य है ।"
इस संबंध में ऋषि ने मैत्रेयी के सामने कई बहुत सुन्दर उदाहरण देकर अदृश्य परन्तु ज्ञान के मूल लक्ष्य आत्मा की श्रेष्ठता को ग्रागे चल कर समझाया। वे कहने लगे : नगाड़ा जब बजाया जाता है तो उसमें से आवाज निकलकर बाहर आ जाती है। इसकी ध्वनियों को यदि मैत्रेयी ! तुम पकड़ना चाहो तो नहीं पकड़ सकती। उसको या तो नगाड़े पर हाथ रखकर और या नगाड़े बजाने वाले के हाथ को पकड़कर ही रोक सकती हो। इसी प्रकार इन्द्रिय रूपी नगाड़े की आवाज को पकड़ने या रोकने के लिए पहले पांच कर्मेन्द्रियों और पांच ज्ञानेन्द्रियों पर संयम ( पकड़ ) करके आगे बढ़कर आत्मा को पकड़ लो । उसको मानो, जानो और गुनो। सारे काम तब सध जाएंगे।
दूसरा उदाहरण शंख का है। शंख हमें ग्रांखों से दीखता है। उसको बजाने पर उसमें से निकले शब्द कानों से सुनाई पड़ते हैं, पर नेत्रों से नहीं दीख पड़ते । अव यदि इसी शंख की आवाज को तुम रोकना चाहो, तो पहले शंख को पकड़ना होगा और तव शंख बजाने वाले को रोकना पड़ेगा। इसी भांति मैत्रेयी ! आत्मज्ञान के साथ के रजोगुणी शब्दों की ध्वनि रोकने के लिए गंखवादक आत्मा को पकड़ना-समझना होगा। तुम्हें उसी श्रात्मा को जानना, मानना और गुनना चाहिए।
तीसरा उदाहरण वीणा का है। मैत्रेयी ! यदि उसकी मीठी तान या स्वरों को तुम ग्रहण करना चाहो, तो उसकी मधुरता पाने के लिए तान को नहीं पकड़ सकते। उसके लिए पहले वीणा को और अन्त में उसके बजाने वाले हाथों को पकड़ लो। उस मीठी तान को छेड़नेवाला अन्तिम रूप में आत्मा ही है। उसमें जो मधुरता है, वही वीणा की तान में मुखरित होती है। इसलिए हे मैत्रेयी ! तुम उस आत्मा को ही जानो, पहचानो, वारम्बार जमकर उसकी साधना करो। तुम्हें एक और भी मिसाल देता हूं। यदि गीली लकड़ियों को जलाया जाए तो धुआं आग से बाहर निकल पड़ता है। प्रिय मैत्रेयी ! जिस प्रकार धुआं उस लकड़ी में अदृश्य रूप से रहता है, उसी प्रकार आत्मा में ही उन सबका निवास अदृश्य रूप में रहता है। भलीभांति समझ लो कि आत्मा ही सबका मूल है, यह सदा ध्यान में रखो।देखो, पानी में घले नमक को उससे अलग नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार मैत्रेयी ! यह आत्मा जीवन की शक्ति और सृष्टि के सारे पदार्थों में व्याप्त है। जब तक ये पदार्थ उस आत्मा से पृथक रहते हैं, उनकी अलग सत्ता का अनुभव होता है और उसमें विलय हो जाने पर उसकी सत्ता का अनुभव होता है और उसमें विलय हो जाने पर उसकी पृथक सत्ता नहीं रहती।
याज्ञवल्क्य ऋषि के इस अन्तिम उदाहरण से ब्रह्मवादिनी मैत्रेयी सहसा चौंक पड़ी और बोली, "यहां से आत्मा के चले जाने पर पदार्थों का नामोनिशान मिट जाता है, यह सुनकर मेरा दिल टूट गया है। मैं निराश हो गई हूं।" ऋषि बोले- "मैंने यह बात तुम्हें डराने के लिए नहीं कही है। असली तत्वज्ञान समझाने के लिए मेरी पहले कही बात को समझ लेना बहुत आवश्यक है। 






सच बात यह है कि आत्मा और सृष्टि के पदार्थों को अलग मानना ही भय और अज्ञान का कारण है। इसलिए 'आत्मानमेव विजनिहि आत्मा को पहचानो ।' यही रहस्य है । वेदशा । आदेश है तथा मेरा भी यही उपदेश है। इसी तत्व को भलीभांति आचरण करो ।"

1 टिप्पणी

  1. Thanks a lot for this. Gratitude Sir Ji 🙏🙏🙏🙏
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