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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

धार्मिक भ्रान्तियाँ

आध्यात्मिक भ्रांतियां: धर्म के नाम पर कुरीति

 धर्म के नाम पर कुरीति



महापुरुष और उनकी कार्य-प्रणाली- महापुरुष दुनिया में सत्य के नाम पर फैली और सत्य-सी प्रतीत होनेवाली कुरीतियों का शमन करके कल्याण का पथ प्रशस्त कर देते हैं। यह पथ भी दुनिया में पहले से रहता है; किन्तु उसी के समानान्तर, उसी की तरह भासनेवाले अनेक पथ प्रचलित हो जाते हैं। उनमें से सत्य को छाँटना कठिन हो जाता है कि वस्तुतः सत्य क्या है। महापुरुष सत्यस्थित होने से उनमें सत्य की पहचान करते हैं, उसे निश्चित करते हैं और उस सत्य की ओर अभिमुख होने के लिये समाज को प्रेरित करते हैं। यही राम ने किया, यही महावीर ने किया, यही महात्मा बुद्ध ने किया, यही ईसा ने किया और यही प्रयास मुहम्मद ने किया। कबीर, गुरुनानक इत्यादि सबने यही किया। महापुरुष जब दुनिया से उठ जाता है, तो पीछे के लोग उसके बताये मार्ग पर न चलकर उसके जन्मस्थल, मृत्युस्थल और उन स्थलों को पूजने लगते हैं, जहाँ वे गये थे। क्रमशः वे उनकी मूर्ति बनाकर पूजने लगते हैं। यद्यपि आरम्भ में वे उनकी स्मृति ही सैंजोते हैं किन्तु कालान्तर में भ्रम में पड़ जाते हैं और वही भ्रम रूढ़ि का रूप ले लेता है।योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी तत्सामयिक समाज में सत्य के नाम पर पनपे हुए रीति-रिवाजों का खण्डन करके समाज को प्रशस्त पथ पर खड़ा कर दिया। अध्याय २/१६ में उन्होंने कहा- अर्जुन। असत् वस्तु का तो अस्तित्य नहीं है और सत् का तीनों कालों में अभाव नहीं है। भगवान होने के कारण यह मैं अपनी ओर से नहीं कह रहा हूँ बल्कि इनका अन्तर तत्त्वदर्शियों ने देखा और वहाँ मैं कहने जा रहा हूँ। तेरहवें अध्याय में उन्होंने क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन उसी प्रकार किया, जो 'ऋषिभिर्ब्रहुगीतम् ऋऋषियों द्वारा प्रायः गाया जा चुका था। अठारहवें अध्याय में त्याग और संन्यास का तत्त्व बताते हुए उन्होंने चार मतों में से एक का चयन किया और उसे अपना समर्थन दिया।

संन्यास- कृष्णकाल में अग्नि को न छूनेवाले तथा चिन्तन का भी त्याग करके अपने को योगी, संन्यासी कहनेवालों का सम्प्रदाय भी पनप रहा था। इसका खण्डन करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि ज्ञानमार्ग तथा भक्तिमार्ग, दोनों में से किसी भी मार्ग के अनुसार कर्म को त्यागने का विधान नहीं है, कर्म तो करना ही होगा। कर्म करते-करते साधना इतनी सूक्ष्म हो जाती है कि सर्वसंकल्पों का अभाव हो जाता है, वह पूर्ण संन्यास है। बीच रास्ते में संन्यास नाम की कोई वस्तु नहीं है। केवल क्रियाओं को त्याग देने से तथा अग्नि न छूने से न तो कोई संन्यासी होता है और न योगी (जिसे अध्याय दो, तीन, पाँच, छः और विशेषकर अठारह में देखा जा सकता है।)कर्म- ऐसी ही प्रान्ति कर्म के सम्बन्ध में भी मिलती है। अध्याय २/३९ में उन्होंने बताया- अर्जुन! अब तक यह बुद्धि तेरे लिये सांख्ययोग के विषय में कही गयी और अब इसी को तू निष्काम कर्म के विषय में सुन। इससे युक्त होकर तू कर्मों के बन्धन का अच्छी तरह नाश कर सकेगा। इसका थोड़ा भी आचरण महान् जन्म-मरण के भय से उद्धार करानेवाला होता है। इस निष्काम कर्म में निश्चयात्मक क्रिया एक ही है, बुद्धि एक ही है, दिशा भी एक ही है। लेकिन अविवेकियों की बुद्धि अनन्त शाखाओंवाली है, इसलिये वे कर्म के नाम पर अनेक क्रियाओं का विस्तार कर लेते हैं। अर्जुन! तू नियत कर्म कर अर्थात् क्रियाएँ बहुत-सी हैं वे कर्म नहीं है। कर्म कोई निर्धारित दिशा है। कर्म कोई ऐसी वस्तु है, जो जन्म-जन्मान्तरों से चले आ रहे शरीरों की यात्रा का अन्त कर देता है। यदि एक भी जन्म लेना पड़ा तो यात्रा पूरी कहाँ हुई?


गृहस्थों का अधिकार प्राय: लोग पूछते हैं कि जब कर्म का यही स्वरूप है, जिसमें एकान्त-देश का सेवन, इन्द्रिय-संयम, निरन्तर चिन्तन और ध्यान करना है, तब तो गीता गृहस्थों के लिये अनुपयोगी है। तब तो गीता केवल साधुओं के लिये है। किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं है। गीता मूलतः उसके लिये है, जो इस पथ का पथिक है और अंशतः उसके लिये भी है, जो इस पथ का पथिक बनना चाहता है। गीता मानवमात्र के लिये समान आशय रखती है। सद्गृहस्थों के लिये तो इसका विशेष उपयोग है; क्योंकि वहाँ से कर्म आरम्भ होता है।श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन इस निष्काम कर्मयोग में आरम्भ का कभी नाश नहीं होता। इसका थोड़ा भी साधन जन्म-मरण के महान् भय से उद्धार कराके ही छोड़ता है। गृहस्थ ही इसके लिये थोड़ा समय देगा, यह उसके लिये ही है। अध्याय ४/३६ में कहा- अर्जुन। यदि तू सम्पूर्ण पापियों से भी अधिक पाप करनेवाला है, तब भी ज्ञानरूपी नौका द्वारा निःसन्देह पार हो जायेगा। अधिक पापी कौन है- जो अनवरत लगा है वह अथवा जो अभी लगना चाहता है? अत: सद्गृहस्थ आश्रम से ही कर्म का आरम्भ है।


योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार असत् वस्तु का अस्तित्व नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं है। परमात्मा ही सत्य है, शाश्वत है; अजर, अमर, अपरिवर्तनशील और सनातन है; किन्तु वह परमात्मा अचिन्त्य और अगोचर है, चित्त की तरंगों से परे है। अब चित्त का निरोध कैसे हो? चित्त का निरोध करके उस परमात्मा को पाने की विधि विशेष का नाम कर्म है। इस कर्म को कार्यरूप देना ही धर्म हैं, दायित्व है।
गीता (अध्याय २/४०) में है कि- अर्जुन! इस कर्मयोग में आरम्भ का नाश नहीं है। इस कर्मरूपी धर्म का किंचिन्मात्र साधन जन्म-मृत्यु के महान् भय से उद्धार करनेवाला होता है अर्थात् इस कर्म को कार्यरूप देना ही धर्म है।

1 टिप्पणी

  1. धन्यवाद 🙏
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