सत्य की विजय
मित्र: प्रहलाद ! सुना है तुम्हारे पिता हिरण्यकश्यप ने तुम्हें जला दिया था। तुम फिर बच कैसे गए ?
प्रहलाद: मित्र ! साक्षात भगवान जिसके साथ हों, उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है? मेरे पिता ईश्वर की सत्ता को नहीं मानते थे। उन्हें ईश्वर द्वारा प्राप्त वरदान का घमंड हो गया था। इसका भी कारण था। मेरे चाचा को भगवान ने मार दिया था। इसके बाद मेरे पिताजी ने घोर तपस्या कर भगवान से यह वर प्राप्त किया कि उन्हें कोई भी नहीं मार सकता । उन्हें न कोई दिन में मार सकता था, न रात में । न कोई नर, न राक्षस, न पशु । न कोई आकाश में मार सकता था, न पृथ्वी पर । वरदान प्राप्ति के बाद वे नम्र न हुए वरन अधिक उत्पात मचाने लगे। उन्होंने अपने को ही ईश्वर मान लिया। उनकी प्रजा भी उन्हें ईश्वर मानने के लिए बाध्य थी ।
मुझे शुरू से ही भगवान की सत्ता में विश्वास था । मैं उन्हें कहता था, " पिताजी ! ईश्वर सब जगह है। नित्य है। ईश्वर की सत्ता का ज्ञान ही सब कुछ है। बाकी संसार मिथ्या है।"
वे मुझ पर बिगड़ जाते। मैं सदा ईश्वर का जप करता। वे बहुत गुस्सा होते। मैं शांत चित्त से उनकी शांति की कामना करता था। उन्होंने मुझ पर जोर डाला कि मैं ईश्वर को भूल जाऊं और अपने पिता को ही सर्वशक्तिमान मानूं ।
प्रहलाद: मेरे पिता गलत रास्ते पर थे। आत्माभिमान से भरे थे। वे अंधकार में थे।
मित्र: मैं जान-बूझकर प्रकाश से अंधकार में कैसे जाता? पिता ने तुम्हें पढ़ाया-लिखाया नहीं?
प्रहलाद: उन्होंने पढ़ाने की कोशिश की। शिक्षक मुझे क, ख, ग, घ पढ़ाते थे लेकिन मुझे सबमें ईश्वर ही नजर आता था। मैं क्या करता? मेरे पिताजी ने मेरे शिक्षकों को भी दंड दिया। उनकी शिकायत थी कि शिक्षक ने ही मुझे यह सब पढ़ाया था। मेरे न मानने पर उन्होंने मेरी पढ़ाई बन्द कर दी ।
मुझे घर में बन्द कर दिया जाता था। मैं अकेले रहता था । खाना भी नहीं दिया जाता था । कई दिनों तक मैं अकेले अंधेरी कोठरी में बन्द रहता ।
मित्र: ( डरकर ) तुम्हें डर नहीं लगता था?
प्रहलाद: नहीं मित्र ? ईश्वर सदा मेरे साथ रहते थे। मैं आंख बन्द किए उनका ध्यान करता था। मुझे भूख-प्यास नहीं सताती थी। ईश्वर के भजन में असीम आनन्द का अनुभव करता था। मेरे पिता जी मुझसे पूछते "अब कहो! अब तुम्हें तुम्हारा ईश्वर नहीं बचा रहा?"
मैं कहता, "पिताजी! आप चिन्तित न हों। भगवान मेरे साथ है ।"
वे अत्यंत क्रुद्ध हो गए। मुझे घोर कष्ट दिया। अंगों पर शस्त्र से प्रहार करवाया । मेरे अंग में कोई घाव नहीं हुआ। वे स्वयं ही एक बार तलवार लेकर आए और मुझे काटना चाहा। तलवार की धार मुड़ गई लेकिन मेरे शरीर में कुछ न हुआ। ईश्वर मेरे साथ थे।
प्रह्लाद बड़े-बड़े हिंसक पशुओं के बीच मुझे छोड़ दिया गया। लेकिन उन्होंने भी मेरा कुछ न बिगाड़ा। एक दिन में ध्यानमग्न था। मेरे सामने बड़ा-सा विषैला सांप आया। मुझे किसी ने ध्यान से विचलित करा दिया। लेकिन सांप ने मेरा कुछ न बिगाड़ा। अंत में मेरे पिता ने मुझे जला देने की सोची। मेरी फूफी होलिका थी। उनको भगवान से एक चादर वरदान में मिली थी। उनको यह वरदान था कि चादर ओढ़ लेने पर अग्नि उन्हें जला नहीं सकती थी। फूफी के साथ मेरे पिता जी ने अग्नि के ढेर पर मुझे बैठा दिया। मैं फूफी की गोद में बैठ भगवान का ध्यान करने लगा। ईश्वर भक्ति के कारण ही होलिका की चादर उड़ गई। वह जल गई और मैं बाल-बाल बच गया। देवताओं ने ऊपर से ही पुष्प वृष्टि की। मैंने ध्यान तोड़ा। देखा, सामने सारी प्रजा मेरी जय जयकार कर रही थी। मेरी मां ने विलखते हुए मुझे गोद में उठा लिया ।
मित्र: अब तो तुम्हारे पिता तुम्हारा कुछ न बिगाड़ सकेंगे।
प्रह्लाद: अब मेरे पिता हैं ही कहां ?
मित्र: क्यों! क्या हुआ उन्हें ? उन्हें तो कोई मार भी नहीं सकता था?
प्रह्लाद: ईश्वर की महिमा विचित्र है। मेरे अग्नि से सकुशल निकल आने पर मेरे पिता जी और भी अधिक क्रोधित हो गए। उन्होंने मुझे एक खम्भे से कसकर बांध दिया। स्वयं तलवार ले मारने दौड़े। मैंने 'जगदीश' की रट लगा दी। खम्भा कट गया और भगवान ने नरसिंह का अवतार ले लिया। उनका सिर सिंह का था और धड़ मनुष्य का। वे मेरे पिता को पकड़ कर चौखट पर बैठ गए। अपने नाखूनों से ही उनका पेट चीर कर उनको मार दिया। मेरे पिता मरते समय खुश थे। उन्हें भगवान के हाथों मरने से संतोष मिला।
मित्र: तुम्हारा नाम पृथ्वी पर सदा अमर रहेगा। तुम्हारी याद में युग-युग तक भगवान भक्त होलिका दहन करेंगे। होलिका दहन से तात्पर्य होगा - समाज में व्याप्त बुराइयों का अंत एवं सत्य की विजय।