कर्म क्या है ?
कर्म को लेकर बड़े-बड़े विद्वान मोहित हैं। प्रायः लोग कहते हैं की संसार में जो कुछ तुम कर रहे हो वही कर्म है। फल की इच्छा को त्याग कर जो कुछ भी करो, वही हो गया निष्काम कर्म। कोई कहता है कि निष्ठा पूर्वक हानि लाभ की चिंता से मुक्त हो करके व्यापार कीजिए तो होगे आप निष्काम कर्मयोगी। कोई देश सेवा को कर्म मानता है , तो कोई समाज सेवा को कर्म मानता है। कोई नौकरी करके कर्मयोगी बनता है ,तो कोई व्यापार करके कर्मयोगी बनता है। किसान रात दिन खून पसीना एक करके खेत में कर्म ही तो करता है, जीवन भर कम करने पर भी खाली हाथ जाना पड़ता है। सिद्ध है कि ये कर्म नहीं है। कर्म तो अशुभ अर्थात संसार से मुक्ति दिलाता है। श्री कृष्ण ने कहा कि अर्जुन तू कर्म कर। लेकिन फल की इच्छा न कर। दुनिया में लोग कुछ न कुछ करते हैं, कोई नौकरी करता है ,कोई व्यापार करता है, कोई खेती करता है और इसी को लोग कर्म मानते हैं। किंतु श्रीकृष्ण कहते हैं की ये कर्म नहीं है। एक परमात्मा की अराधना ,चिंतन ,ध्यान, भक्ति के सिवाय जो कुछ किया जाता है, वह सब इसी लोक का बंधनकारी कर्म है। संसार में दो प्रकार के कर्म प्रचलित हैं। संसारी मनुष्य कर्म करता है तो उसका फल भी चाहता है अथवा फल ना मिले तो कर्म करना नहीं चाहता। किंतु श्रीकृष्ण ने इन कर्मों को बंधनकारी बताते हुए कहा कि 'आराधना' ही एकमात्र कर्म है।श्रीकृष्ण ने बताया कि केवल एक परमात्मा का संपूर्ण श्रद्धा से और अनन्य भाव से चिंतन और अराधना करना ही कर्म है। इसके अतिरिक्त जो कुछ किया जाता है, सारा जगत जिसमें रात दिन व्यस्त है , वह कर्म नहीं है, बल्कि इसी लोक का बंधन है। कर्म कोई ऐसी निर्धारित प्रक्रिया है जो संसार बंधन से मोक्ष दिलाती है। कर्म का अर्थ अराधना। जब पुरुष परमात्मा की अराधना करे और यह समझकर परमात्मा की अराधना करें कि मैं कर्ता नहीं हूं बल्कि प्रकृति के गुणों द्वारा धारावाहिक रूप से कर्म होता है, अर्थात मैं ईश्वर द्वारा संचालित हूँ। तब समझ लेना चाहिए कि यही शुद्ध कर्म है। आतः कर्म का वास्तविक अर्थ है अराधना, कर्म का वास्तविक अर्थ है भजन। कर्म तो शाश्वत, सनातन ब्रह्म में प्रवेश दिलाता है। कर्म ऐसी निर्धारित प्रक्रिया है जो मन के समूल इच्छाओं को नष्ट करके ब्रह्म में स्थापित कर दे।
बुद्धिमान पुरुष स्वतः जो कुछ प्राप्त है उसी में संतोष रखते हुए सुख दुख ,हानि लाभ ,जय पराजय, हर्ष शोक से परे होकर ईर्ष्यारहित तथा मान अपमान में सम भाव रखने वाला पुरुष कर्मों में नहीं बँधता।