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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

संतोषम परम सुखम

सोने की ईंटें ; संतोषम परम सुखम

 सोने की ईंटें



एक भिखारी था। भीख मांगने में वह बड़ा चतुर था। जितना चतुर था, उतना ही बड़ा कंजूस भी था। उसने भीख मांग-मांग कर बहुत सा धन जमा कर लिया। धन जमा हो गया तो उसकी सुरक्षा की उसे चिंता सवार हुई। उसने सोचा, बहुत सोचा, आखिर निर्णय किया इस छोटी-सी झोंपड़ी में इतना धन जमा करके रखना ठीक नहीं । उस धन से उसने सोने की चार ईंटें खरीद लीं, उन ईंटों को उसने पास के जंगल में जाकर गाड़ दिया। अब वह निश्चिंत था। मन में खुशी थी कि धन सुरिक्षत है।

भिखारी भीख मांग कर लौटता तो जहां ईंटें थीं, उस जगह को जाकर देख लेता था। पहले एक बार देखता था, फिर धीरे-धीरे ईंटों का मोह बढ़ गया। वह दिन में कई बार उस जगह को देखता । पैर से जमीन को अच्छी तरह थपथपाता, ताकि मालूम पड़े, किसी ने ईंटों को उखाड़ा तो नहीं, जगह खोखली तो नहीं हो गई।

एक दिन किसी चोर ने बात ताड़ली । जब भिखारी इंटों की जगह को देखकर लौट आया तो चोर ने पीछे से जाकर उस जगह को खोद डाला, सोने की ईंटें देख वह खुशी से उछल पड़ा। मन में कहने लगा यह तो बड़ा धनवान भिखारी निकला। चोर ने सोने की चारों ईंटें निकाल उनकी जगह मिट्टी की चार ईंटें रख, उस जगह को पहले की तरह समतल बना दिया ।भिखारी शाम को फिर ईंटें देखने आया तो ऊपर की मिट्टी कड़ी नहीं थी, अब भुरभुरी मिट्टी देख उसे शंका हुई। उसने उस जगह को खोदा। सोने की ईंटों की जगह मिट्टी की ईंट रखी थीं। भिखारी फूट-फूट कर रोने लगा, तभी उस रास्ते से एक महात्मा गुजरे। उन्होंने भिखारी को रोता देख, रोने का कारण पूछा। भिखारी बोला, "महात्मा जी, मैं लुट गया। मेरा सब कुछ चोरी हो गया । अब क्या होगा ?"


महात्मा यह सुन कर आश्चर्य में थे। देखने में वह फटे हाल था शरीर पर अच्छी तरह कपड़े भी नहीं थे । जाड़े में कांप रहा था, था भी भिखारी । महात्मा जी सोचने लगे- इसका क्या लुट गया, इसका क्या चोरी हो गया, यह तो भिखारी है ही। लगता है, कुछ गड़बड़ है। उन्होंने भिखारी के साथ हम दर्दी दिखाई। कहा, “रो नहीं, बता तेरा क्या लुट गया ? मुझे तो नहीं लगता तेरे पास धन होगा।"

"हां महाराज, धन था, मैंने भीख मांग-मांग कर सोने की चार ईंटें जोड़ी थीं । उन्हें चोरी के डर से यहां गाड़ गया था, मगर वे ही चोरी हो गईं। चोर उन्हें ले गया, उनकी जगह मिट्टी की ये ईंटें रख गया ।"महात्मा ने पूछा, "वे सोने की ईंट क्या तुम्हें रोज खाना देती थीं ?"
"नहीं महाराज, वे ईंट मुझे खाना नहीं देती थी " भिखारी बोला।  
खाना नहीं तो कुछ तो देती होंगी इसीलिए तो तुम इतने दुखी हो रहे हो," महात्मा ने पूछा ।

भिखारी आँसु पोंछ कर बोला, "ईंटें देती तो कुछ नहीं थीं, बस उन्हें देखकर मन में संतोष हो जाता था। ' "

सुन कर महात्मा जी मुस्कराए। बोले, “जब सोने की ईंटें केवल देखने के ही काम आती थीं तब इन्हें भी देखकर काम चला लो। जैसे सोने की ईंटें देखीं, वैसे ही मिट्टी की, क्या अन्तर आता है ?'

भिखारी कुछ सोचने लगा । उसके मन में अभी भी शांति नहीं थी। महात्मा ने फिर कहा, "सुख संतोष में है, लालच में नहीं। सोने की ईंटें तुम्हारे पास केवल थीं, काम कुछ नहीं आती थीं। ईंटें वे भी हैं, तुमने सोने की ईंटें भी मिट्टी में गाड़ रखी थीं। विचार करो और संतोष कर सुखी बनो।"
भिखारी को बात समझ में आ गई। उसने महात्मा जी को नमस्कार किया और भिक्षा मांगने वाला कटोरा उठा कर अपनी राह पर चला गया। 
संतोषम परम सुखम अर्थात संतोष में ही सुख है।

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