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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

उससे बड़ा कोई नहीं

परमात्मा से बड़ा कोई नहीं: उपनिषद

 परमात्मा




एक बार ब्रह्म ने देवों पर प्रसन्न होकर उन्हें अपनी शक्ति प्रदान कर दी। ब्रह्म से शक्ति पाकर देवों ने असुरों को जीत लिया। उस विजय के फलस्वरूप देवों के मन में अभिमान भर गया कि वे ही सर्वशक्तिमान हैं। उन्हें कोई भी नहीं हरा सकता। अभिमान क्यों न होता ? अपने बल-पौरुष से ही तो उन्होंने असुरों को जीता है, ऐसा उन्होंने अपने मन में सोचा। उनके इस अभिमान को देखकर ब्रह्म ने सोचा, 'यदि उनके इस अहं भाव को न हटाया गया
तो अवश्य ही एक दिन उनका पतन होगा।' यही सोच कर वे उनके सामने एक दिव्य यक्ष के रूप में प्रकट हुए । देवता भौंचक्के से इस अद्भुत रूप को देखते रहे। पहचान न पाए कि वह कौन है । वे मन ही मन सहमे और उसका परिचय जानने के लिए उत्सुक हो उठे । उन्होंने सोचा, 'अग्निदेव परम तेजस्वी हैं। वेदों के भेदों को जानने वाले हैं। सर्वज्ञ हैं । तभी तो उनको "जातवेद" का नाम दिया गया है। इसीलिए वह इस कार्य के लिए सबसे उपयुक्त रहेंगे ।' देवों ने अग्नि से प्रार्थना की, "हे जातवेद, आप ही जाकर पूरा पता लगाइए कि वह अद्भुत रूप कौन है ?” अग्निदेवता को अपनी बुद्धि और बल पर अटूट विश्वास था । बोले, "अच्छी बात है, अभी पता लगा कर आता हूं।" वे तुरन्त यक्ष के समीप जा पहुंचे। अग्नि को अपने समीप देखकर
यक्ष ने पूछा, "आप कौन हैं ?"
अग्नि को अपनी शक्ति पर बड़ा गर्व था। उन्होंने सोचा, "मेरे तेज को सभी पहचानते हैं,
फिर इसने कैसे नहीं जाना ?" तमककर बोले, 'तुम मुझे नहीं जानते ? मैं अग्नि हूं । मेरा ही नाम जातवेद है।'
ब्रह्म ने अनजान बनकर कहा, "अच्छा तो आप ही अग्निदेव सर्वज्ञ और जातवेद हैं ? आपने दर्शन देकर बड़ी कृपा की । क्या आप अपने सामर्थ्य का बखान कर सकते हैं ?" अग्निदेवता झुंझला उठे । बोले, "मैं क्या कर सकता हूं, आप यह जानना चाहते हैं ? मैं क्या नहीं कर सकता ? मैं चाहूं तो पल भर में सारे भूमंडल को जला कर राख की ढेरी बना दें ।”
"अच्छा, यह बात है ? तो जरा इस सूखे तिनके को जला दीजिए ।" यह कहकर यक्षरूपधारी ब्रह्म ने एक तिनका अग्निदेव के सामने रख दिया। अग्निदेव ने इसे अपना अपमान समझा। फिर भी उन्होंने उसे जलाने का प्रयत्न किया।
पर यह क्या ? अपनी सारी शक्ति लगाने पर भी तिनका ज्यों-का-त्यों रहा। कारण स्पष्ट था । ब्रह्म ने अग्निदेव को जो अपनी शक्ति दाह के रूप में दी थी वह अपने पास वापस समेट ली थी । फिर सूखा तिनका कैसे जलता ? अग्नि देव लज्जा से जल गए और देवताओं के पास वापस आकर बोले, "मैं इस यक्ष को पहचानने में असफल रहा हूं।"
देवों ने वायु देव से कहा, "भगवन्, आप पता लगाएं यह यक्ष कौन है ।" वायुदेव को भी अपने बुद्धि बल पर पूरा भरोसा था। मुस्कराकर उन्होंने अग्निदेव की ओर देखा । बोले, "अच्छा मैं अभी जाकर पता लगाकर लौटता हूं।" वायु को अपने समीप खड़ा देखकर यक्ष ने पूछा, "आप कौन हैं ?"
वायु ने तमककर उत्तर दिया, “मैं वायु हूं। मुझे मातरिश्वा भी कहते हैं। मुझे कौन नहीं जानता ? * यक्ष ने फिर अनजान वनकर कहा, "अच्छा, आप ही हैं जो अंतरिक्ष में विना आधार के घूमते फिरते हैं ? आप ही वायुदेव मातरिश्वा हैं? कृपा कर बताएं कि आप में क्या शक्ति है। आप क्या कर सकते हैं ?"
इस पर वायु ने भी अग्नि की भांति गर्व से उत्तर दिया, "मैं चाहूं तो सारे भू-मंडल को बिना
आधार के उठा दूं और उड़ा दूं।"
"तव तो आप सचमुच वड़े वलधारी हैं। जरा इस सूखे तिनके को तो उड़ा दीजिए ।"
वायुदेवता ने इसे अपना अपमान समझा। फिर भी तिनके को उड़ाने के लिए तैयार हो गए।
उन्होंने पूरी शक्ति लगा दी पर तिनका उड़ना तो क्या था, हिला भी नहीं। वह भी अग्नि की भांति
लज्जित हो तिलमिला कर लौट आए। बोले, "मैं भली-भांति नहीं जान पाया कि यह यक्ष कौन है।"जव अग्नि और वायु जैसे अतिशक्तिसम्पन्न दवगण असफल होकर चले आए तो सभी देवता देवराज इन्द्र के पास गए। उनसे प्रार्थना की, "आप ही जाकर पता लगाइए कि यह यक्ष कौन है। आपकी तो एक सहस्त्र आंखें हैं ।"
"अच्छा अभी लो। यह कौन वड़ी वात है ?"
वे तुरन्त यक्ष के पास पहुंचे। पर उनके वहां पहुंचते ही देखते-देखते यक्ष अंतर्धान हो गया।
इन्द्र में सबसे अधिक अभिमान था। इसलिए यक्ष ने इन्द्र से बात करना भी उचित न समझा । इन्द्र असमंजस में वहीं खड़े रहे। वायु और अग्नि की भांति वापस नहीं आए। थोड़ी देर के बाद उन्हें उसी स्थान पर हिमाचलकुमारी दिखाई दीं। इन्द्र ने भक्तिपूर्वक उनको प्रणाम किया। बोले, "देवी, प्राप शंकर भगवान की शक्ति हैं। आपको अवश्य पता होगा कि यह यक्ष कौन था। किसलिए वह यहां आया था और देखते ही देखते अंतर्धान हो गया ?"
उमा ने उत्तर दिया, "वह दिव्य यक्ष स्वयं ब्रह्म थे । तुम लोगों ने जो असुरों पर विजय प्राप्त की है, वह उन्हीं ब्रह्म की कृपा से की है। तुम तो सिर्फ निमित्त मात्र थे। तुम सभी देवतागण ब्रह्म की इस विजय को अपनी विजय समझ बैठे। उनकी महिमा को अपनी महिमा समझ बैठे । तुम्हारे झूठे अभिमान को दूर करने के लिए ही वह यक्ष रूप में प्रकट हुए थे।उन्होंने अग्नि और वायु के दर्प का नाश किया और तुम्हें सच्चा ज्ञान देने के लिए मुझे भेजा । 




तुम अपनी शक्ति का सारा अभिमान त्याग दो। तुम्हारी सारी शक्ति उसी ब्रह्म की है । जिन ब्रह्म की शक्ति से तुम शक्तिवान बने हो उनकी महिमा को समझो। स्वप्न में भी यह नहीं सोचना चाहिए कि ब्रह्म की शक्ति के बिना तुम अपनी स्वतंत्र शक्ति से कुछ कर सकते हो।"

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