भगवत प्राप्ति
श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा, "गायन करने योग्य श्रुतियों में मैं बृहत्साम अर्थात् बृहत् से संयुक्त से समत्व दिलानेवाला गायन हूँ अर्थात् ऐसी जागृति मैं हूँ। छन्दों में गायत्री छन्द मैं हूँ। गायत्री कोई ऐसा मन्त्र नहीं है जिसे पढ़ने से मुक्ति मिलती हो वरन् एक समर्पणात्मक छन्द है। तीन बार विचलित होने के पश्चात् ऋषि विश्वामित्र ने अपने को इष्ट के प्रति समर्पित करते हुए कहा- 'ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।' अर्थात् भूः भुवः और स्वः तीनों लोकों में तत्त्वरूप से व्याप्त देव! आप ही वरेण्य हैं। हमें ऐसी बुद्धि दें, ऐसी प्रेरणा करें कि हम लक्ष्य को प्राप्त कर लें। यह मात्र एक प्रार्थना है। उसकी यह समर्पित प्रार्थना मैं हूँ, जिससे निश्चित कल्याण है; क्योंकि वह मेरे आश्रित हुआ है। मासों में मार्गशीर्ष मैं हूँ। जब पापों का हनन होने लगता है, उस समय साधना-पथ का शीर्ष स्तर चलने लगता है जिसमें मैं भली प्रकार निवास करता हूँ। और जिसमें सदैव बहार हो ऐसी ऋतु, हृदय की ऐसी अवस्था भी मैं ही हूँ। वृष्णिवंश में मैं वासुदेव अर्थात् सर्वत्र वास करनेवाला देव हूँ। पाण्डवों में मैं धनंजय हूँ। पुण्य ही पाण्डु है और आत्मिक सम्पत्ति ही स्थिर सम्पत्ति है। पुण्य से प्रेरित होकर आत्मिक सम्पत्ति को अर्जित करनेवाला धनंजय मैं हूँ।मुनियों में मैं व्यास हूँ। परमतत्त्व को व्यक्त करने की जिसमें क्षमता है, वह मुनि मैं हूँ। कवियों में उशना अर्थात् उस परमात्मा में प्रवेश दिलानेवाला काव्यकार मैं हूँ।
अर्जुन! तू मुझमें मन लगा, मुझमें ही बुद्धि लगा। इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। मन और बुद्धि भी न लगा सके, तब? (अर्जुन ने पीछे कहा भी है कि मन को रोकना तो मैं वायु की तरह दुष्कर समझता हूँ) इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं। यदि तू मन को मुझमें अचल स्थापित करने में समर्थ नहीं है, तो हे अर्जुन! योग के अभ्यास द्वारा मुझे प्राप्त होने की इच्छा कर। (जहाँ भी चित्त जाय, वहाँ से घसीटकर उसे आराधना, चिन्तन-क्रिया में लगाने का नाम अभ्यास है) यदि यह भी न कर पाये तो?
यदि तू अभ्यास में भी असमर्थ है तो केवल मेरे लिये कर्म कर अर्थात् आराधना करने में तत्पर हो जा। इस प्रकार मेरी प्राप्ति के लिये कर्मों को करता हुआ तू मेरी प्राप्तिरूपी सिद्धि को ही प्राप्त होगा। अर्थात् अभ्यास भी पार न लगे तो साधना-पथ में लगे भर रहो। यदि इसे भी करने में असमर्थ है तो सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्याग कर अर्थात् लाभ-हानि की चिन्ता छोड़कर 'मद्योग' के आश्रित होकर अर्थात् समर्पण साथ आत्मवान् महापुरुष की शरण में जा। उनसे प्रेरित होकर कर्म स्वतः होने लगेगा। समर्पण के साथ कर्मफल के त्याग का महत्त्व बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं। केवल चित्त को रोकने के अभ्यास से ज्ञानमार्ग से कर्म में प्रवृत्त होना श्रेष्ठ है। ज्ञान माध्यम से कर्म को कार्यरूप देने की अपेक्षा ध्यान श्रेष्ठ है; क्योंकि ध्यान में इष्ट रहता ही है। इसलिये इस त्याग से वह तत्काल ही परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है। अभी तक योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया कि अव्यक्त की उपासना करनेवाले ज्ञानमार्गी से समर्पण के साथ कर्म करनेवाला निष्काम कर्मयोगी श्रेष्ठ है।
दोनों एक ही कर्म करते हैं; किन्तु ज्ञानमार्गों के पथ में व्यवधान अधिक हैं। उसके लाभ-हानि की जिम्मेदारी स्वयं पर रहती है, जबकि समर्पित भक्त की जिम्मेदारी महापुरुष पर होती है, इसलिये वह कर्मफल त्याग द्वारा शीघ्र ही शान्ति को प्राप्त होता है।