Vedanta, Upnishad And Gita Propagandist. ~ Blissful Folks. Install Now

𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

एकलव्य

एकलव्य के जीवन की कुछ रोचक बातें

 एकलव्य 



निषादराज: बेटा ! तेरे दाहिने हाथ का अंगूठा क्या हुआ? तुमने इतना भयंकर रूप क्यों बनाया है ? क्या द्रोणाचार्य ने तुम्हें शिष्य नहीं बनाया ?

पिताजी! आप शांत हो मैं सारी कहानी सुनाता हूं।

मैं एक दिन शिष्य बनने के लिए गुरुदेव द्रोणाचार्य के पास गया। लेकिन उन्होंने न तो मुझे अपना शिष्य ही बनाया और न ही अपने आश्रम में जगह दी। पर मैं उन्हें अपना गुरु बनाने का दृढ़ निश्चय कर चुका था। मैं वहां से घर नहीं लौटा। धनुष विद्या मुझे सीखनी ही थी। गुरुदेव की एक मिट्टी की प्रतिमा बना ली। उसी मूर्ति के आगे धनुष-बाण चलाने लगा।

पहले आंखें बंद कर गुरुदेव का ध्यान करता और बाण चलाता। थोड़े ही दिन में मेरा बाण निशाने पर लगने लगा। उन दिनों मैं आश्रम के सारे नियमों का पालन करता था। जंगल में बिल्कुल अकेला था। जंगली पशु भी आते-जाते रहते थे। पर मैं डरता नहीं था। मुझे ऐसा लगता जैसे गुरुदेव मेरे साथ हैं।

मैं एक दिन धनुष-बाण चलाने का अभ्यास कर रहा था। मेरे शरीर का रंग काला था। और अंगों में मैल जम गया था। मैंने काला मृग चर्म पहन रखा था।
मेरे समीप एक कुत्ता आया और जोर-जोर से भौंकने लगा। मैंने उसका मुंह सात बाणों से बेध दिया। वह पांडवों का कुत्ता था। पांडव एवं कौरव उन दिनों अपने गुरु द्रोणाचार्य से विद्याध्ययन कर रहे थे।
पांडव अपने कुत्ते के मुंह में सात बाण देख कर बड़े चकित हुए। जंगल में घूमते हुए मेरे पास पहुंचे। मुझे देखकर उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि वे बाण भी चला सकता था ।

अर्जुन: तुम कौन हो ? तुमने धनुष विद्या किससे सीखी है? 

एकलव्य: मैं एकलव्य हूं। निषादराज का पुत्र मेरे गुरुदेव द्रोणाचार्य हैं।

गुरुदेव भी वहीं आ गए थे। अर्जुन ने उनसे पूछा – गुरुदेव आपने इस एकलव्य को मुझसे भी होशियार बना दिया? आप इसके गुरु कब बने? इसकी शिक्षा कब होती है? मैं बहुत खुश हुआ और गुरुदेव के पांव पर गिर गया। 

 द्रोणाचार्य: एकलव्य ! कौन है तुम्हारा गुरु ? मैंने कब तुम्हें शिष्य बनाया?


एकलव्य: गुरुदेव ! आपने मुझे शिष्य बनाने से अस्वीकार कर दिया था। अत: मैंने आपकी मूर्ति बनाकर उसके सामने साधना की। गुरुदेव ! आपकी महिमा धन्य है। मुझे आशीर्वाद दीजिए।

मुझे आशा थी, गुरुदेव बहुत खुश होंगे। मेरी बात सुन कर वे एक क्षण रुक कर बोले, "एकलव्य तुम्हें गुरुदक्षिणा देनी होगी।"
एकलव्य : मैं धन्य हुआ। मैं गुरुदक्षिणा अवश्य दूंगा। आज्ञा दीजिए।

द्रोणाचार्य: मुझे दक्षिणा में तुम दाहिने हाथ का अंगूठा दे दो। मैं चकित रह गया। जल्द ही अंगूठा काट कर उन्हें दे दिया। सभी शिष्य कभी मुझे और कभी गुरुदेव की ओर देख रहे थे। गुरुदेव को भी आश्चर्य हुआ ।

निषादराज: हाय मेरे पुत्र ! तुम्हारी साधना भी बेकार गई? अब तुम बाण भी नहीं चला सकते? कैसे निष्ठुर निकले तुम्हारे गुरुदेव ।

एकलव्य: पिताजी गुरुदेव को दोष न दें। गुरु को कलंकित न करें। मैं धनुष-बाण चला सकता हूं। मेरी विद्या में कोई कमी नहीं आई। गुरु के दर्शन से मेरी क्षमता दुगुनी हो गई । गुरुदेव ने इशारे से ही मुझे तर्जनी एवं मध्यमा अंगुलियों से बाण चलाना सिखा दिया ।

निषादराज: धन्य हो पुत्र ! तुम्हारे जैसा पुत्र पा कर आज मेरा जीवन धन्य हुआ। ईश्वर करे पृथ्वी पर ऐसे ही गुरुभक्त पैदा होते रहें।

एक टिप्पणी भेजें

This website is made for Holy Purpose to Spread Vedanta , Upnishads And Gita. To Support our work click on advertisement once. Blissful Folks created by Shyam G Advait.