भाव ही भीम है।
मित्र: भीमसेन क्या तुम जन्म से ही बलशाली थे ?
भीम: हाँ। मैं मां के गर्भ से ही बलवान था। मेरा शरीर वज्र के समान कठोर था। मेरी मां ने मेरे बचपन की एक घटना सुनाई थी। जब मैं मात्र दस दिन का था, मेरी मां मुझे गोद में लिए बैठी थीं। एक बाघ गुफा के पास आ गया था। उसे मेरे पिता कुरुश्रेष्ठ पाण्डु ने तीर बाणों से मार डाला था उसकी गर्जना से मेरी माँ भयभीत हो गई और मैं उनकी गोद से नीचे पत्थर पर गिर पड़ा। वह पत्थर मेरे शरीर के भार से चूर-चूर हो गया। मेरे पिता को बड़ा आश्चर्य हुआ था।
मित्र: बचपन में तुम से कोई भी साथी किसी खेल में विजयी नहीं होता होगा?
भीम: मेरे एक-दो मित्र नहीं थे? मेरे चाचा धृतराष्ट्र के एक सौ पुत्र थे। हम पांच भाई थे। युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल एवं सहदेव। चचेरे सौ भाइयों में दुर्योधन और मेरा जन्म एक ही दिन हुआ था। हम सब साथ-साथ खेलते थे। मैं सदा विभिन्न खेलों में, खाने-पीने में तथा धूल उछालने, दूसरे लड़कों से कोई सामान छीन लेने में सबसे आगे रहता। दुर्योधन मुझसे ईर्ष्या करता था। वह अपने भाइयों के साथ मुझे डराना चाहता था। लेकिन कभी सफल न हुआ । वे सब शक्तिशाली थे। लेकिन जब वे मेरे पास पहुंचते मैं उनके सिर आपस में टकरा देता और स्वयं बाहर निकल भागता। मैं जल में गोते लगाते समय उनमें से दस को पकड़ लेता और काफी देर तक गोते लगाता। जब उनका दम छूटने लगता तब उन्हें बाहर निकालता। जब कौरव पेड़ पर चढ़कर फल तोड़ते में अपने पैर से ठोकर मारकर पेड़ को ही हिला देता। मैं गिरने के भय से चिल्लाने लगते और फलों सहित नीचे गिर पड़ते ।
मित्र : तुमसे तो कौरव ईर्ष्या करते होंगे ?
भीमसेन: मैं उनसे द्वेष नहीं रखता था। मैं स्वभाववश ही ऐसा करता था। लेकिन दुर्योधन के मन में ईर्ष्या का भाव आ गया था। उसने अपने भाइयों सहित मुझे कैद करने की योजना बनाई ।
एक बार मुझे गंगा तट पर जल-विहार के लिए ले गए। वहां एक महल और बड़ा-सा बागीचा था। हम लोग वहां घूम-फिर रहे थे फिर दुर्योधन द्वारा बनवाए गए भोज्य पदार्थ एक दूसरे के मुंह में डाल रहे थे। दुर्योधन ने मेरे मुंह में भोजन डाला जिसमें कालकूट नामक विष मिश्रित था। भोजन के बाद मैं मूर्च्छित हो गया। दुर्योधन एवं उनके अन्य भाइयों ने मिलकर मुझे कसकर बांध दिया और गंगा में डाल दिया। मैं नाग लोक पहुंच गया। वहां मेरे शरीर के भार से कई नागकुमार दब कर मर गए ।
मित्र : फिर तो उन्होंने तुम्हें डस लिया होगा ?
भीमसेन: उन्होंने बड़ी-बड़ी भयंकर विषवाली दातों से खूब डसा। लेकिन उनके विष के कारण कालकूट नामक विष का प्रभाव नष्ट हो गया। मैं जाग उठा। कई सर्पों को धरती पर पटक कर मार डाला। सभी नाग भयभीत हो गए और अपने राजा वासुकी के पास गए। नागराज ने मुझे पहचान लिया। उन्होंने मुझे हृदय से लगाया । सभी ने मिलकर विचार किया कि मुझे उस कुण्ड का रस पीना चाहिए जिसके पीने से एक हजार हाथी का बल मिल जाता था। उनकी आज्ञा पाकर मैंने आठ कुण्डों का रस पी लिया। फिर मेरे शरीर में दस हजार हाथियों का बल आ गया। उनकी सहायता से मैं हस्तिनापुर लौटा जहां मेरी माता कुन्ती और अन्य चार भाई मेरे लिए चिन्तित बैठे थे।
मित्र: इसीलिए कहा है-"जाको राखे साइयां, मार सके न कोइ " तुमने वहां से लौट कर सबसे बदला लिया होगा ?
भीमसेन: नहीं। मेरे भाई युधिष्ठिर ने सारी घटना सुनने के बाद मुझसे कहा भैया भीम ! तुम अब चुप हो जाओ। तुम्हारे साथ जो बर्ताव हुआ, वह कहीं किसी प्रकार न कहना। तुम्हारा बल एक दिन तुम्हें विजयी बनाएगा। दुर्योधन ने पुनः मुझे कालकूट नामक विष दिया। लेकिन मैं उसे भी पचा गया।
मित्र: लेकिन तुम इतना विषैला पदार्थ पचा कैसे जाते थे ?
भीमसेन: मेरे पेट में वृक नाम की अग्नि थी। अतः कोई भी विष वहां पच जाता था।
मित्र : तुम लोग विद्याध्ययन नहीं करते थे ?
भीमसेन: हमने आचार्य द्रोण के संरक्षण में समस्त शस्त्र एवं शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया। वहां ढाल, तलवार, धनुष-बाण एवं गदा चलाने की शिक्षा मिली। मैंने गदा चलाने में कुशलता प्राप्त की। मैं हाथी घोड़ों पर सवार होकर भी गदा चला लेता था। गदा चलाने में कोई मुझसे आगे नहीं निकलता था। इसी गदा के साथ मैंने जीवन में बड़े-बड़े पराक्रम दिखाए। महाभारत की लड़ाई में भी मेरा यही अस्त्र था।
मित्र: धन्य हो तुम शरीर से नहीं वरन बुद्धि एवं कला से भी वीर थे।
भाव ही भीम है जिसे श्री कृष्ण श्रद्धा कहकर संबोधित किया। भाव बहुत बलशाली है कि परम देव परमात्मा को भी संभव बनाता है। और विजातीय प्रवृत्तियों के लिए योद्धा भी है। श्रद्धा रहित पुरुष को सुख नहीं मिलता, ना ही शांति मिलती है।