ईश्वर अव्यक्त रूप से कर्ता है।
अधिकांशतः हम लोग अपने पड़ोसियों से अथवा माता पिता सुना करते थे कि सब कुछ ईश्वर करता है। उसकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता।
लेकिन जिन महापुरुषों ने आत्मा के बारे में और जगत के बारे में छानबीन करी है, वह इस नतीजे पर पहुंचे हैं। ईश्वर कुछ नहीं करता हमें ही सब कुछ करना पड़ेगा। यदि ईश्वर ही सब कुछ करता तो फिर समाज में इतने भ्रष्टाचार और अत्याचार नहीं होते क्योंकि ईश्वर कभी अत्याचार तो करता नहीं। स्पष्ट है कि ईश्वर कुछ नहीं करता।
ईश्वर को कुछ करना नहीं पड़ता क्योंकि ईश्वर के चाहने मात्र से सब कुछ हो जाता है। यदि ईश्वर चाह ले हम लोगों को मुक्ति मिल जाए तो हमें मुक्ति के लिए कुछ करना ही ना पड़े। ईश्वर अव्यक्त रुप से कर्ता है। जो कुछ करते हो तुम ही करते हो। यदि कर्ता ईश्वर होता तो भोक्ता भी ईश्वर होता। लेकिन ऐसा नहीं होता है। हम जो कुछ सही गलत कर रहे हैं उसका परिणाम हम स्वयं ही भुगत रहे हैं।
तुम्हारे भीतर दोनो मौजूद हैं। देवी संपद भी और आसुरी संपद भी। निर्भर इस पर करता है कि आप के भीतर अधिकता किसकी है? देवी संपद की या आसुरी संपतद की? राम की या रावण की?
यदि हमारे भीतर देवी संपद का बाहुल्य होगा, तो हम धर्म के पक्ष में निर्णय लेंगे और यदि हमारे भीतर आसुरी संपद की अधिकता होगी तो हम अधर्म के पक्ष में निर्णय लेंगे।
यदि हमारे भीतर प्रकृति विद्यमान है तो हम अधर्म का रास्ता चुनेंगे।
यदि हमारे भीतर प्रकृति से परे की सत्ता अर्थात परमात्मा विद्यमान है तो हम धर्म के पक्ष में खड़े रहेंगे। इस प्रकार परमात्मा अव्यक्त रूप से कर्ता है।
इसलिए हम जो कुछ कर्म कर रहे हैं, हम स्वयं ही कर रहे हैं और उसके परिणाम को भी हम ही भुगतेंगे। ईश्वर कुछ नहीं करेगा, हमें ही करना पड़ेगा। हमारे भीतर दुर्योधन भी है और अर्जुन भी है।