अहम् ब्रह्मास्मि त्वं चा कहने से कोई विद्वान नहीं होता
जीवन का मुख्य उद्देश्य, परम लक्ष्य आत्मज्ञान (आत्म-बोध) प्राप्त करना है। यह बहुत सरल है और अत्यन्त कठिन भी है। आत्मज्ञान प्राप्ति की अनेक विधियां हैं ज्ञान, भक्ति, कर्म, योग, ध्यान, साधना आदि। अनेक धर्मों ने आत्म-बोध प्राप्त करने की अनेक विधियां बताई है। परन्तु अष्टावक्र कोई विधि नहीं बताते हैं। आत्म-बोध किसी क्रिया से नहीं हो सकेगा। यह क्रिया रहित है। वास्तव में ज्ञान तो विद्यमान है ही, केवल इस बात का बोध भर प्राप्त करना है और यह योग्य गुरु की कृपा एवं उपस्थिति से ही संभव हो सकेगा। जो विस्मृत है उसे स्मृति में लाना है। केवल यादभर आ जाये कि मैं कौन हूं? मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है? बस समझो काम बन गया। हो गया आत्म-बोध ।
आत्मबोध की विधि
एक बार एक सिंह शावक अपने परिवार से बिछुड़ गया और बकरियों के झुण्ड में पहुंच गया। अब वह उन्हीं के समुदाय में चरने-फिरने-रहने लगा। बहुत समय बीत गया। वह भूल ही गया कि मैं सिंह शावक हूं। वह बकरियों जैसा व्यवहार करने लगा। एक दिन वह शावक बकरियों के साथ विचरण कर रहा था कि अचानक उसे पास की झाड़ियों से सिंह की गर्जना सुनाई पड़ी। सिंह की उस दहाड़ को सुनकर उसके कान खड़े हो गये, वह बड़े ध्यान से आवाज सुनने लगा। उसने सोचा कि ऐसी आवाज तो मैं भी निकाल सकता हूं। ये बकरियां तो में में करती हैं, मेरा गर्जन, मेरी आवाज तो इनसे भिन्न है, इसका मतलब मैं बकरा-बकरी नहीं हूं, मैं तो अलग वर्ग का प्रतीत होता हूं, मेरा स्वरूप सिंह का है।वह भागा और जाकर सिंहों के समूह में शामिल हो गया। एक आवाज से, एक छोटी-सी घटना से उसका सिंहत्व जाग गया। उसे उसके स्वरूप का भान हो गया। बस ऐसे ही आत्मज्ञान हो जाता है। आत्म-बोध का ज्ञान होने में कोई वक्त नहीं लगता। ऐसा ही अष्टावक्र की उपस्थिति में जनक के साथ घटा। बुद्ध ने छः वर्ष तक साधना की, परन्तु कुछ नहीं मिला। अंत में वह सब छोड़ नदी के किनारे लेट गए। जब वह शून्य की स्थिति में पहुंचे तो उसी क्षण उन्हें बुद्धत्व (बोध-तत्त्व) प्राप्त हो गया। तात्पर्य यह है कि आत्मज्ञान प्राप्त होने में इतना ही समय लगता है जितना प्रकाश के आते ही अंधकार के भागने में। आत्मज्ञान प्राप्ति के लिए किसी प्रक्रिया से नहीं गुजरना होता है। कोई कर्म, कोई भक्ति, कोई योग साधना नहीं करनी होती है। आत्मज्ञान एक दिव्य घटना है, जो व्यक्ति के पात्रता अर्जित करते ही क्षण भर में घट जाती है। उसकी खोई हुई स्मृति लौट आती है और वह अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। मोह के आवरण ने स्मृति को ढाँक रखा है, इसके हटते ही आत्म बोध हो जाता है। आत्म-बोध होने में समय नहीं लगता है, समय केवल परदे को हटाने में लगता है। अर्जुन के मोह को हटाने में भगवान् श्रीकृष्ण को गीता के पूरे अठारह अध्याय कहने पड़े। पर जैसे ही उसका मोह हटा उसकी स्मृति तुरन्त लौट आई, उसे आत्मज्ञान हो गया और तब वह तुरन्त ही बोल उठा
(मेरा मोह नष्ट हो गया है, मुझे स्मृति प्राप्त हो गई है..... अब तो जैसा आप कहेंगे मैं वैसा ही करूंगा)