हीरा जन्म अमोल है
भारत ने अध्यात्म के जिस शिखर को छुआ है, उस तक विश्व के अन्य धर्म नहीं पहुंच पाये हैं। यह शिखर है- अद्वैत का। इसके अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है। संसार में ईश्वर के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। समस्त जीव-जगत्, स्थूल जगत् सहित कण-कण एवं रज-रज में वही परमात्मा व्याप्त है। चारों ओर एक ही ब्रह्म तत्त्व फैला हुआ है। संसार में द्वैत (दो तत्त्व) है ही नहीं, केवल अद्वैत (दो नहीं अर्थात् एक ही) ही है। इसी आधार पर भारत ने “सर्वं खल्विदं ब्रह्मं” “अयमात्मा ब्रह्म' 'तत्त्वमसि' (तू भी वही है) 'ईशावास्यमिदं सर्वं' की घोषणा की। ये घोषणाएं केवल कल्पनाएं नहीं हैं, अपितु प्रत्यक्ष दर्शन, अनुभूति एवं निरीक्षण परीक्षण के बाद पाया गया सार है, यही परम सत्य है।
सभी भारतीय शास्त्र, विचारक, दार्शनिक, संत-महात्मा एवं गुरु इसी सत्य को प्रतिपादित करते हैं और मनुष्य को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि तू भी ब्रह्म ही है, इस सत्य को प्राप्त करने, उस स्थिति में पहुंचने और उसकी अनुभूति करने की विविध विधियां बताते हैं। “गीता” में भगवान् श्रीकृष्ण ने ज्ञान, कर्म, भक्ति के सोपान बताये हैं।
इनमें से किसी के द्वारा भी उस सत्य तक पहुंचा जा सकता है। उपनिषद् भी ध्यान, योग आदि विविध साधन बताते हैं, परन्तु अष्टावक्र ऐसी कोई विधि, कोई कर्म या कोई साधना नहीं बताते हैं। उनके अनुसार इस सत्य की अनुभूति के लिए कुछ करना ही नहीं है, केवल 'मैं वही हूं' इस बात का बोध ही पर्याप्त है। ये बोध आते ही उस परम स्थिति को व्यक्ति उपलब्ध हो जाता है। उसे आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है। इन अर्थों में अष्टावक्र के विचार, भाव और कथन बहुत अनूठे हैं। ऐसा बिरला ऋषि आध्यात्मिक जगत् में कोई हुआ ही में नहीं। अष्टावक्र के मंत्र इतने प्रभावी, ऊर्जावान और इतने चमत्कारिक हैं कि ये पाठक, श्रोता के मन-मस्तिष्क पर ऐसी गहरी चोट करते हैं कि उसकी जन्म-जन्म से चली आ रही गहरी तन्द्रा, पल भर में टूट जाती है और वह परम सत्य का साक्षात्कार कर उसमें सदा-सदा के लिए स्थित हो जाता है। उसे आत्म-बोध हो जाता है।विचारकों का ऐसा सोच है कि अष्टावक्र गीता के विचार आम लोगों तक इसलिए नहीं पहुंच सके क्योंकि यह केवल मुक्ति की ही राह बताता है,मनुष्य के लिए व्यावहारिक जगत् के सूत्र इसमें नहीं हैं। पर मेरे विचार से ऐसा नहीं है। असल बात यह है कि विद्वानों, व्याख्याकारों ने अष्टावक्र गीता पर उस दृष्टि से विचार ही नहीं किया है, अतः यह केवल मोक्ष शास्त्र बनकर ही रह गया है।
वास्तव में अष्टावक्र गीता बहुत सरलता एवं सहजता से आत्मज्ञान करा कर जीव-जगत् एवं जगदीश्वर की एकरूपता के भाव को हमारे मन में बिठाता है। ऐसा करके 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना को प्रतिस्थापित कर संसार के सभी व्यक्तियों के साथ अपनों जैसा व्यवहार करने का सन्देश देता है। इस प्रकार यह एक आदर्श व्यवहार शास्त्र भी है। इस ग्रन्थ के सूत्रों को यदि हर एक मनुष्य व्यवहार में लाने लगेगा तो वर्तमान में समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराध, चोरी डकैती, बलात्कार, हत्याएं, लूटपाट, ईर्ष्या-द्वेष, लड़ाई-झगड़े स्वतः समाप्त हो जाएंगे और एक आदर्श, सुव्यवस्थित, शांत एवं आनन्दमय समाज का उदय होगा।