अष्टावक्र गीता अंतिम अध्याय: भाग 7
राजा जनक कहते हैं कि हे गुरुवर, मैंने आपके तत्त्वज्ञान रूपी संसी की सहायता से हृदय और उदर से अनेक प्रकार के विचार रूपी बाण निकाल दिए हैं। अब में पूर्ण स्वस्थ हूँ। इस विचारों के कारण ही चित्त में आत्मा का बिंब नहीं दिखाई देता है।
राजा जनक आगे कहते हैं कि आत्मा हमारा स्वभाव है। वही सत्य है, आनंद है, उसे प्राप्त कर लेना ही सबसे बड़ी महिमा है महामहिम आत्मज्ञानी के समक्ष शेष सारी महिमाएँ झूठी है। अपनी महिमा में स्थित होने के बाद अब मेरी महिमा कोई नहीं छीन सकता है। अपनी महिमा प्राप्त करने के लिए लोग धर्म, अर्थ, काम और विवेक का प्रयोग करते हैं लोग ध्यान, धारणा, समाधि, जप, पूजा, शास्त्र, गुरु और सत्संग आदि का सहारा लेते हैं। पर जब पूर्ण उपलब्धि प्राप्त हो जाए तो इनका कोई उपयोग नहीं रह जाता है। यह बैसा ही है, जैसे नदी के पार उतरने के बाद नौका का क्या प्रयोजन है? उसके बाद नौका को साथ ढोना मूढ़ता है। इसलिए आत्मज्ञानी का द्वैतभाव समाप्त हो जाता है। द्वैत समाप्त होते ही अद्वैत की चर्चा व्यर्थ हो जाती है। अतः अब जनक के लिए धर्म, अर्थ, काम, विवेक की कोई आवश्यकता नहीं है। उनके लिए द्वैत और अद्वैत की चर्चा भी निरर्थक है।
अज्ञानी पुरुष स्थान और समय के बंधनों से बँधा होता है आत्मज्ञानी इस परिधि से बाहर होता है। उसकी आत्मा नित्य, शाश्वत, अजन्मा, निराकार, निर्लिप्त होती है। उसके लिए भूत-भविष्य वर्तमान का कोई अर्थ नहीं होता है। आत्मा सर्वत्र व्याप्त होती है, वह पहले भी थी, आज भी है और आगे भी होगी। आत्मा को जानने वाला ज्ञानी ब्रह्म को भी जान लेता है और ब्रह्मवत् हो जाता है। आत्मा परमात्मा, ईश्वर, ब्रह्म आदि नाम देने से ही अनेक प्रकार की प्रांतियाँ पैदा हो गई है। ऐसा लगता है कि यह कोई तत्त्व है या पदार्थ है; जिसे देखा जा सकता है, जाना जा सकता है, पाया जा सकता है। पर इन्हें न तो जाना जा सकता है और न ही देखा जा सकता है और न ही पाया जा सकता है। यह लगभग वैसा ही है, जैसे, 'सत्य कहा नहीं जा सकता है, और जो कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं है। सत्य को शब्दों में उतारते ही वह असत्य हो जाता है। इसी प्रकार आत्मज्ञानी को सिर्फ अनुभव होता है उससे आत्मा का अनुमान लगाया जा सकता है। राजा जनक जिस स्थिति में पहुँच गए है, वहाँ आत्मा और अनात्मा का भेद समाप्त हो जाता है। वहाँ सिर्फ आनंद का बोध होता है। वहाँ पहुँचकर शुभ-अशुभ चिंता अचिंता का ख्याल नहीं रहता है। केवल चैतन्य शेष रह जाता है। यही उसकी महिमा है। राजा जनक कहते हैं कि जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय ये अवस्थाएँ शरीर, मन और बुद्धि की है। चेतना इनसे पार की अवस्था है। ज्ञानी इन सब अवस्थाओं से पार हो जाता है। मुझे इन अवस्थाओं का अनुभव नहीं होता है। राजा जनक आगे कहते हैं कि अब में आत्मा की महिमा में स्थित हो गया हूँ चूँकि आत्मा दूर भी है, समीप भी है, बाहर भी है, अंदर भी है। आत्मा स्थूल भी है और सूक्ष्म भी है। इस सृष्टि में सूक्ष्म ही स्थूल का कारण है। स्थूल भी सूक्ष्म में परिवर्तित हो जाता है ऊर्जा और पदार्थ भिन्न नहीं है। अतः मुझे दूर-समीप बाहर भीतर, स्थूल सूक्ष्म एक से लगते हैं। राजा जनक आगे कहते हैं कि आत्मा का न तो जन्म होता है और न मृत्यु अतः अपनी महिमा में स्थित हो जाने के बाद मुझे न तो जीवन प्रभावित करता है और न मृत्यु लोक और लौकिक व्यवहार शरीर से ही संबंधित होता है लय और समाधि मन से संबोधित होती है मुझ आत्मज्ञानी के लिए लोक, लौकिक व्यवहार, लय, समाधि आदि का कोई उपयोग नहीं है। मुझ जैसे आत्मज्ञानी के लिए धर्म, अर्थ, काम आदि की कोई अपेक्षा नहीं रह गई है। इसी प्रकार चूँकि अब मुझे कुछ भी पाना शेष नहीं बचा है, अतः योग और विज्ञान का भी कोई प्रयोजन शेष नहीं है। राजा जनक आत्मज्ञान के पश्चात् दंद्रों के समाप्त होने का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि आत्मा में स्थित होने के बाद अब मैं सभी भूत विकारों से मुक्त हो गया हूँ। मेरा यह आत्मस्वरूप निरंजन है, निर्दोष है, अद्वैत है, शुद्ध है। इसमें भिन्नता बिलकुल नहीं है। ज्ञानप्राप्ति से पूर्व मेरे चित्त में सभी आकारों और संस्कारों के चित्र बनते थे, पर दर्पण की भाँति इस आत्मा में चित्र नहीं बनते। यह साक्षी मात्र है। हमेशा निर्लिप्त रहती है। मेरे स्वरूप में पंचभूत, देह, इंद्रियों मन आदि का कोई स्थान नहीं है। इसमें शून्य भी नहीं है और नैराश्य भी नहीं है। राजा जनक आगे कहते हैं कि मैं इंदरहित हो गया हूँ। अब मुझे शास्त्र की कोई आवश्यकता नहीं है। आत्म-विज्ञान भी मेरे लिए अनावश्यक है, क्योंकि अध्ययन से जो जाना जाता है वह बौद्धिक होता है और मैं तो अपने आत्मस्वरूप में स्थित हूँ, अतः मुझे शास्त्र और विज्ञान का कोई प्रयोजन नहीं है। जब मैंने विषय छोड़ दिए तो मेरे लिए विषयरहित मन की कोई कल्पना नहीं है। चूँकि तृप्ति का अनुभव अतृप्त को होता है, अतः तृप्ति भी निरर्थक है। मेरे मन में यह विचार भी नहीं उठता है कि मुझे तृष्णा का अभाव हो गया है। आत्मज्ञानी की स्थिति अनिर्वचनीय होती है उसे अभिव्यक्त करना कठिन होता है। जनक उसका वर्णन करने का प्रयास कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि आत्मा ही वास्तविक निजस्वरूप है और अन्य सभी स्वरूप धारण किए हुए हैं। ये भ्रम के कारण सत्य लगते हैं। भ्रम हटते ही निज आत्मस्वरूप का बोध हो जाता है। पर उसको भी रूपिता नहीं है। दरअसल आत्मा का ऐसा रूप नहीं है जिसे देखा जा सके या जिसका वर्णन किया जा सके। आत्मा में विद्या अर्थात् ज्ञान और अविद्या अर्थात् संसार भी नहीं है। ये दोनों भी भ्रम ही हैं। आत्मा में मैं या यह का भेद भी नहीं है, क्योंकि अहंकार जिसके कारण मैं और उसके बाद 'यह' को उत्पत्ति हुई है, नष्ट हो जाता है। आत्मा का कोई बंधन नहीं है और इसलिए मोक्ष भी नहीं है।
राजा जनक कहते हैं कि मैं आत्मज्ञानी अब अहंकाररहित शुद्ध चैतन्य मात्र हूँ जो न कर्ता है और न भोक्ता इसलिए मेरे लिए प्रारब्ध कमों का भी अस्तित्व नहीं रहा। इन्हें भोगनेवाला अहंकार नहीं रहा और आत्मा भांगती नहीं। फिर जीवनमुक्त भी नहीं हूँ। आत्मज्ञानी जब अहंकार को बचा लेता है तभी जोवनमुक्ति और विदेह कैवल्य की बात उठती है। राजा जनक इन सभी के पार केवल आत्मा में स्थिर हो गए हैं जो परमावस्था है। राजा जनक में आम व्यक्ति की अपूर्व क्षमता है। मनुष्य में सक्रियता तभी आती है जब वह फल की आकांक्षा से कार्य करता है। दूसरी ओर आत्मज्ञानी मन तथा अहंकार से रहित होकर सिर्फ साक्षी भाव से जोता है उसमें न तो कर्तापन होता है और न ही भोक्तापन, वह कर्म का त्याग करके आलसी भी नहीं होता है। वह कर्म करते समय इससे होने वाले लाभ-हानि का लेखा-जोखा नहीं करता है।
राजा जनक आगे कहते हैं कि मैं आत्मा हूँ जो अद्यस्वरूप है। दरअसल सृष्टि में दो हैं ही नहीं। आत्मा-परमात्मा, जीव-ब्रह्म, प्रकृति पुरुष आदि का विभाजन सृष्टि में कहीं नहीं है। सभी उस एक आत्मा का विस्तार है मुझे अज्ञान के कारण जो भिन्नताएँ प्रतीत हो रही थीं, वे अब समाप्त हो गई हैं। अब मेरा कोई लोक नहीं है, क्योंकि मैं तो हर जगह हूँ मेरा कोई निश्चित स्थान नहीं है। अब मेरी कोई मुमुक्षा भी नहीं है, क्योंकि मैं जहाँ हूँ वहीं मोक्ष है। गोगी मार्ग पर चल रहा है, उसे अभी अपना लक्ष्य प्राप्त करना है। वह साधक है।
ज्ञानवान वह है जिसे ज्ञान हो गया है, जबकि मैं तो स्वयं ज्ञान हूँ। मैं न बद्ध हूँ और न मुक्त।
विभिन्न विद्वान् सृष्टि और प्रलय के संबंध में तरह-तरह के विचार व्यक्त करते हैं। कुछ कहते हैं सृष्टि अनादि है। इसे किसी ने नहीं बनाया और यह कभी नष्ट नहीं होगी। कुछ कहते हैं परमात्मा ने यह सृष्टि एक निश्चित अवधि में बनाई और यही इसका संचालन कर रहा है और एक दिन संहार भी करेगा। कुछ कहते हैं कि सृष्टि परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है। एक ही ब्रह्म विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त हुआ है फैलना और विस्तृत होना इसका गुण है। यह एक ● संकल्प के साथ हो रहा है। एक सीमा तक इसका विस्तार होगा और फिर यह सिकुड़कर ब्रह्म में विलीन हो जाएगी। यही प्रलय की स्थिति होगी। पदार्थ ऊर्जा का दृश्य रूप है और ऊर्जा पदार्थ का अदृश्य रूप है तथा ये दोनों परिवर्तनशील हैं। राजा जनक जो सद्गुरु के कारण केवल बोध मात्र से इस अद्वयस्वरूप को प्राप्त हुए हैं, कहते हैं कि संपूर्ण सृष्टि इस आत्मा का ही विस्तार है। जिस प्रकार ऊर्जा नष्ट नहीं होती, उसी प्रकार आत्मा को न कोई सृष्टि है और न ही संहार जिसने आत्मा को पा लिया, उसके लिए साध्य, साधन, साधक और सिद्धि सब व्यर्थ हैं। दरअसल इस सिद्धांत के अनुसार खष्टा और सृष्टि दो (अलग-अलग) नहीं हैं, एक ही हैं। परमात्मा एक विराट् ऊर्जा का केंद्र हैं और सृष्टि उसी से पदार्थ का रूप प्राप्त करती है।
राजा जनक अपनी स्थिति का वर्णन करते हुए आगे कहते हैं कि मैंने आत्मा को कहीं से पाया नहीं है।
पहले अज्ञान के कारण मैं अपने आप को शरीर, मन, इंद्रिय आदि समझता और आत्मा को अलग मानता था। अगर आत्मा भिन्न होती और मैं पा लेता तो मुझे प्रमाण देना होता व्याख्या करनी होती। पर मैं प्रमाता (बोधयुक्त) नहीं हूँ, क्योंकि बोध मुझसे भिन्न नहीं है। मैं प्रमा(बोध) भी नहीं हूँ। मैं तो आत्मा हूँ, इसलिए प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि सत्य तो साक्षात् है मुझमें अब किंचन, अकिंचन का भाव भी नहीं है, क्योंकि आत्मा होने से में सब कुछ हूँ और विमल स्वरूप हूँ। हमारा चित्तवृत्तियाँ पैदा करता है और सभी विशेष चित्त के कारण हैं। इन विशेषों को दूर करने के लिए एकाग्रता की आवश्यकता पड़ती है। आत्मज्ञानी के सभी विशेष समाप्त हो जाते हैं वह आत्मा में स्थित होकर क्रियारहित हो जाता है। उसे न एकाग्रता की आवश्यकता होती है और न ज्ञान की उसे नमूदता होती है और न हर्ष-विषाद, क्योंकि इससे भी वह दूर रहता है। "आत्मा सर्वदा निर्विकार है। व्यवहार और परमार्थ मेरे में नहीं है, क्योंकि ये मन के धर्म हैं। इसी प्रकार सुख और दुःख भी मन के धर्म है और मैं उनसे परे हूँ।" "आत्मज्ञान की उपलब्धि से सभी भेद गिर जाते और एक चैतन्य शेष रह जाता है। माया, संवाद, प्रीति, विरति और जीव, ब्रह्म आदि भेद अज्ञान के कारण हैं और अब मुझे एक ही तत्त्व दिखाई देता है और अन्य वस्तुएँ इसी का विस्तार दिखाई देती हैं।"
राजा जनक कहते हैं कि आत्मा सदैव कूटस्थ (स्थिर) है। वह अखंड है। उसका विभाजन नहीं किया जा सकता है। उसे उपलब्ध हो जाना ही परम स्वास्थ्य है। इसीलिए जानी ही स्वस्थ है और बाकी रुग्ण हैं। आत्मज्ञानी में न कोई प्रवृत्ति होती है और न निवृत्ति उसके लिए बंधन कुछ नहीं होता है और मुक्ति होती है। जिस व्यक्ति को आत्मज्ञान नहीं प्राप्त होता है वह उपाधि वाला होता है। वह राजा, मंत्री आदि कहलाता है। आत्मा उपाधिरहित होती है वह जड़ है या चैतन्य, प्रकृति है या पुरुष या परमात्मा, यह कहना कठिन है। वास्तव में वही सब कुछ है या कुछ भी नहीं है। वह दिखाई नहीं देता, पर फिर भी रहता है। वह क्रियारहित है, पर फिर भी सभी कुछ उसी से हो रहा है। वह शिवस्वरूप है, कल्याणकारी राजा जनक कहते हैं कि आत्मस्वरूप को पा लेने के बाद कोई उपदेश आवश्यक नहीं रह जाता है जहाँ एक ओर उपदेश अज्ञानी को दिए जाते हैं वहीं शास्त्र भी अज्ञानी के लिए ही होते हैं। ज्ञानी तो स्वयं शास्त्र है। उसकी वाणी ही शास्त्र है जो जीवंत है। पुस्तक रूपी शास्त्र जीवंत नहीं है। ज्ञानी स्वयं गुरु है। वह अब शिष्य नहीं रहा, उसे अब पुरुषार्थ की आवश्यकता भी नहीं है। अज्ञानी कहते हैं वह संसार है, माया है, ब्रह्म है, जीव है आदि। दूसरे प्रकार के अज्ञानी कहते हैं कि सृष्टि, जीव आदि सब माया है, ब्रह्म ही सत्य है। जानी है और नहीं है के चक्कर में नहीं पड़ता है, क्योंकि जानने के बाद उसे सबकुछ आत्मवत् लगता है।
ईश्वर एक है, जीव अलग है, सभी आत्माएँ ईश्वर हैं, ईश्वर अनेक हैं, क्योंकि आत्माएँ अनेक हैं, ये सब विचार मन के कारण उठते हैं। आत्मज्ञानी में विचारों की तरंगें उठती ही नहीं हैं। वह शांत हो जाता है। वह व्याख्या करने के चक्कर में नहीं पड़ता और परम तत्व में विश्राम करता है। यही ज्ञान की अंतिम अवस्था है और यही अंतिम सिद्धि है। ऐसा कहते हुए महाज्ञानी राजा जनक भूमि पर बैठ गए। अष्टावक्र भी उनके पास ही बैठ गए। विद्वानों का समूह जो अष्यवक्र-जनक महासंवाद सुन रहा था वह भी बैठा रहा। क्षण बीते पड़ियाँतों दिन बीत गया। अगला दिन भी निकल गया। कोई टस से मस नहीं हुआ। परम ज्ञान के बाद सभी शेष संसार को भूल गए। उधर राजमहल में कोलाहल मच गया है। सभी लोग महाराज की चिता करने लगे है। हालांकि अध्यात्म प्रेमी राजा जनक कई बार संन्यास लेने का प्रयास कर चुके थे। वे अकसर ऋषियों, मुनियों, विद्वानों के साथ लंबा सत्संग करते रहे हैं, पर इस बार की घटना अद्भुत है। राजा एक बालक के उपदेश सुनकर सबकुछ भूलकर चुपचाप बैठे हैं। इतने विद्वान् जो तरह-तरह की विचारधाराओं से प्रभावित हैं और तर्क में प्रवीण हैं और हर वक्तव्य को तर्क की कसौटी पर कसते हैं और बिना बहस के मानते नहीं हैं भी चुपचाप बैठे हैं।
अनेक राजकर्मचारी उस स्थान पर भेजे गए, पर किसी की भी हिम्मत राजा से कुछ कहने की नहीं हुई। और तो और वह चोदा जिस पर राजा ने सवार होने के लिए एक पाँबड़े पर पैर रखा था, वह भी चुपचाप खड़ा है। वह चंचल पशु भी खाना-पीना, कूदना, हिनहिनाना भूल गया। राजकर्मचारी दृश्य का ब्यौरा तो सुना जाते पर उसके आगे कुछ करने का साहस उनका नहीं है। अब महारानी ने महामंत्री को बुलाया और कहा, "हे विद्वान्, आप वरिष्ठ हैं अनुभवी हैं। इस अद्भुत पटना के बाद सभी चिंतित है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो क्या होगा?
महामंत्री हाथ जोड़कर महारानी को समझा रहे हैं, "हे महारानी, यह सम्मोहन नहीं है। राजा जनक और विद्वत्तसमाज ने आत्मज्ञान का उपदेश सुना है। उस बालक विप्र ने अपनी अद्भुत वाणी से जो ज्ञान दिया है वह ज्ञान की पराकाष्ठा है और अब इन्हें और कुछ जानने की आवश्यकता नहीं है। इस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद वे अपना पिछला सब कुछ भूल गए हैं और इस कारण यह स्थिति उत्पन्न हो गई है। मैं स्वयं विचलित हूं, क्योंकि महाराजा द्वारा राजकाज छोड़ देने से अनेक प्रकार की समस्याएँ खड़ी हो गई है।
अनेक निर्णय लेने हैं जो महाराज की अनुमति के पश्चात् ही संभव होंगे। यदि कुछ देर यह स्थिति और चली तो अराजकता फैल जाएगी। आप घबराएँ नहीं। मैं भी प्रवास करता हूँ। कोई न कोई हल निकल ही आएगा।"
इतने आश्वासन के बाद भी महारानी की चिंता दूर नहीं हुई और वे महामंत्री के समक्ष शीघ्र जाने और महाराज को तंद्रा से निकालने का निवेदन करने लगीं। महामंत्री द्वारा बार-बार धैर्य दिलाने पर भी उन्हें संतोष नहीं हुआ और उन्होंने कह दिया, "हे महामंत्री, यदि आप जाने में संकोच कर रहे हैं तो आप यहाँ बैठिए और मैं महाराज को अपना कर्तव्य याद दिलाती हूँ।" महारानी की बात सुनकर महामंत्री लज्जित अनुभव करने लगे। उन्होंने सिर झुकाकर महारानी से निवेदन किया, "हे महारानी आप मेरी बात को अन्यथा न लें। मैं आपकी चिंता समझ रहा हूँ। मैं शीघ्र ही महाराज के पास जाता हूँ और उनसे निवेदन करता हूँ कि वे अपनी इस विचित्र समाधि से जागे और राजकाज का संचालन करें।" यह कहते हुए महामंत्री उठ खड़े हुए और यज्ञमंडप की ओर चल दिए।
•विद्वान् महामंत्री अनेक दुविधाओं में डूबे हैं। ये यज्ञमंडप की ओर जा रहे है, पर उनका मन कहीं और है जिस दिन अष्टावक ने राजा जनक को आत्मज्ञान देने की बात कही, ये वहीं थे। वे अपने आपको सौभाग्यशाली समझ रहे थे, क्योंकि लगे हाथों उन्हें भी अष्टावक्र का उपदेश सुनने का अवसर मिल रहा था।
पर दुर्भाग्यवश उन्हें राजकाज सँभालने का दायित्व दे दिया गया। वे महाराज के आदेश की अवहेलना करने का साहस न कर सके और इस महान् सुख से वंचित रह गए, जबकि विद्वानों की बड़ी संख्या ने दूर से ही सही, पर उस उपदेश को सुना तो है। आज ये सब भी उसी अवस्था में हैं जिस अवस्था में महाराज हैं। वे सब निश्चय ही धन्य हैं। पिछले दिनों में महामंत्री अपने आपको समझाते रहे कि चलो फिर कभी अवसर मिलेगा, पर अब उनसे बर्दाश्त नहीं हो रहा है। इतनी बड़ी संख्या में विद्वानों को समाधि से जगाने का दायित्व उन्हें पाप जैसा लग रहा है। वे सभी आत्मसुख की अनुभूति कर रहे होंगे। इन विद्वानों ने महाराज की विद्वत्तसभा में वर्षो लगातार भाग लिया है। इस सत्संग का लाभ उन्हें अब मिल रहा है।
सत्संग की महिमा की याद करते हुए उन्हें एक पुराना प्रसंग याद आ गया। एक बार मुनि विश्वामित्र और मुनि बसिष्ठ में विवाद हो गया। विश्वामित्र कह रहे थे कि तप को महिमा ज्यादा है। वसिष्ठ कह रहे थे कि सत्संग की महिमा अधिक है। विवाद बढ़ा और दोनों निर्णय के लिए पाताल लोक में भगवान् शेषनाग के समक्ष पहुँचे। दोनों का वक्तव्य सुनकर शेषनाग ने कहा, "हे मुनियों, मेरे सिर पर पृथ्वी का बोझ है इस भार की स्थिति में मुझे निर्णय लेने में कष्ट होगा और निर्णय अनुचित भी हो सकता है। बेहतर होगा, आप अपने तप या सत्संग के प्रभाव से पृथ्वी का भार अपने-अपने शीश पर एक-एक करके ले वो में निर्णय ले पाऊँगा।"
दोनों को यह बात पसंद आ गई हठो विश्वामित्र ने पहले पृथ्वी को उठाने की ठानी। उन्होंने कहा कि अपनी दस हजार वर्षों की तपस्या के फल से मैं पहले पृथ्वी उठाऊँगा ऐसा कहते हुए उन्होंने पृथ्वी को गेंद के समान उठाकर अपने शीश पर रख लिया, पर चंद ही पलों में पृथ्वी डगमगाने लगी। विश्वामित्र के तप का फल खर्च होते-होते समाप्त होने लगा और पृथ्वी पर हाहाकार मच गया। भवन टूटने लगे। पेड़ उखड़ने लगे। पर्वतों से बड़े-बड़े शिलाखंड तेजी से गिरने लये सृष्टि का संतुलन बिगड़ने लगा। त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश विचलित हो गए। यह देखकर शेषनाग ने मुस्कराते हुए मुनि वसिष्ठ की ओर इशारा किया। मुनि बसिष्ठ ने अपने आधे पल के सत्संग के प्रतिफल से पृथ्वी को उठाकर अपने सिर पर रख लिया। चंद पलों में ही सारा हाहाकार शांत हो गया और रखीभर भी कंपन शेष नहीं रहा। सचमुच राजा जनक और उनकी विद्वत्तसभा के सभासद धन्य हैं, जिन्होंने वर्षों अध्यात्म पर सत्संग किया। राजा जनक तो पौड़ियों से सत्संग के लिए प्रसिद्ध हैं। आज उन्हें इसका महान फल मिला है।
यह सोचते सोचते थे खुले मैदान में पहुंचे जहाँ सभी लोग समाधि जैसी अवस्था में हैं। सभी को आँखें खुली हैं, पर उन्हें शायद संसार नहीं, कुछ और दिखाई दे रहा है। उन्हें न भूख लग रही है न प्यास उनके चेहरे खिले हुए हैं। शायद मन ही मन प्रसन्न हो रहे हैं। महामंत्री सोचने लगे कि उन्होंने अनेक लोगों को देखा है जो कुछ पाकर प्रसन्न होते हैं।
उन्होंने ऐसे लोगों को भी देखा है जो अप्रत्याशित धन और अन्य प्रकार का सुख पा जाते हैं, पर ऐसा प्रसन्नता का भाव किसी के मुखमंडल पर नहीं देखा सचमुच उन्हें परम सुख मिल गया है।
महामंत्री ने चारों ओर चक्कर लगाया। पीछे-पीछे उनके अनुचर भी हैं। कदमों की आहट का किसी पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। सभी खोए हुए हैं। अंत में महामंत्री राजा जनक के सम्मुख जा खड़े हुए और प्रार्थना करने लगे।
"हे राजा जनक, आप महान् हैं। आप विद्वान् हैं। आपने वर्षों से आत्मज्ञान हेतु सत्संग किया है। आप पता है कि आपने अष्टावक्र जैसे महान् गुरु से ज्ञान प्राप्त किया है। "हे महाराज, आप पिछले कई दिनों से इस कार्य में व्यस्त रहे। इस कारण से राजकार्य में विघ्न खड़े हो रहे हैं। उनसे निपटने के लिए मुझे आपसे परामर्श और आदेश लेना है। यदि उसमें विलंब होगा तो ये छोटी-छोटी समस्याएँ विकराल रूप धारण कर लेंगी और प्रजा परेशान हो जाएगी। "हे महाराज, मैं जानता हूँ कि आप आत्मसुख की अनुभूति कर रहे हैं और मैं अभागा आपका ध्यान भंग करने का प्रयत्न कर रहा हूँ। मैं उसी प्रकार दंड का भागी हूं, जैसे कामदेव ने शिव की समाधि भंग करने पर दंड पाया था।
"हे महाराज, मैं यह जानते हुए भी इस धृष्टता को किए जा रहा हूँ। क्या करुँ, यह मेरे पिछले पापों का फल है जो मुझसे ऐसा अनर्थ करा रहा है। ऐसा कहते हुए महामंत्री राजा जनक के चरणों में झुक गए।
अब धीरे-धीरे सभी को तंद्रा टूटने लगी। वे देख रहे हैं कि महामंत्री बार-बार निवेदन कर रहे हैं, पर महाराज की समाधि टूटने का नाम ही नहीं ले रही है। अब अष्यवक्र, जो यह सब शांत भाव से देख रहे थे, ने सभी से कहा कि वे एक स्वर से महामंत्री का साथ दें। सभी ने महामंत्री के स्वर में स्वर मिलाया और कहने लगे. "हे महाराज, आप जागिए। आपकी प्रजा त्रस्त है उठिए, राजकार्य चलाइए।" थोड़ी देर में महाराज की समाधि टूटी। वे सभी की प्रार्थना सुनकर एक किस्म से अचकचा गए। दुबारा तिवारा सुनने के बाद बोल उठे, "कौन महाराज, कैसी प्रजा, कैसा राजकार्य? मैं तो अब सूक्ष्म हूँ। मुझे इस स्थूल संसार से क्या प्रयोजन? मैं आपका महाराज नहीं और न ही आप मेरी प्रजा है। मैं और आप तो एक ही आत्मा के स्वरूप है। आप मुझे भिन्न क्यों देख रहे हैं। मैं तो आपको अपने समान ही देख रहा हूँ।"
सभी लोग यह सुनकर चौंक पड़े। यह देखकर अष्टावक्र मुस्करा रहे हैं।
अब अष्टावक ने फिर बोलना प्रारंभ किया, "हे वत्स तुम इस समय अपनी आत्मा में स्थित हो, इसलिए ऐसा कह रहे हो। पर तुम इस स्थूल संसार में भी हो इस राज्य के महाराजा हो। तुम्हारे इस राज्य के प्रति कुछ दामिल भी है तुम्हारा परिवार है जो चिंतित हो रहा है तुम्हारी प्रजा है जो तुम पर आश्रित है और इस समय त्रस्त है।
"अतः हे राजा जनक, उठो और अपने सांसारिक कर्मों को सहज भाव से करो पर कभी इनमें लिप्त नहीं होना, अन्यथा आत्मसुख से वंचित हो जाओगे।" राजा जनक धीरे-धीरे उठे और अष्यवक्र से अनुमति लेकर अनमने भाव से राजमहल की ओर चल दिए। लगभग ऐसी ही स्थिति है जैसे कोई बच्चा जो खेल में मस्त था, अपनी माता के डाँटने पर चुपचाप घर को चल देता है। महामंत्री ने अष्टावक्र को प्रणाम किया और कहा कि आप भी अतिथिगृह की ओर चलें। अष्टावक्र ने अपने पिता कहोड़ और मामा श्वेतकेतु की ओर देखा। सभी ने ढलते सूर्य की ओर देखा उन्हें लगा कि अब आज का दिन समाप्त हो चला है। आगे का कार्यक्रम कल ही बन पाएगा। यह सोचकर वे सभी अतिथिगृह की और चल दिए। उधर पूरा घटनाक्रम देखकर आनंद ले रहे विद्वतजन भी अपने-अपने निवास को चल दिए। उधर आसमान में दिन-भर भोजन की तलाश करते और भोजन का आनंद लेते तृप्त हुए पंछी अपने-अपने नीड़ की ओर जा रहे हैं। हरी-भरी घास का आनंद लेकर तृप्त गौएँ अपनी गौशाला में वापस लौट रही हैं। इन विद्वत्तजनों में तृप्ति का एक अद्भुत भाव है। उन्हें ऐसा लग रहा है कि अब उन्हें कुछ नहीं चाहिए। वे क्यों पर वापस लौट रहे हैं? कहीं घर जाकर घरेलू समस्याओं से जूझना पड़ा तो यह परम सुख कम हो जाएगा। महामंत्री अष्टावक्र को अतिथिगृह छोड़कर अपने निवास की ओर चल दिए। उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि उन्होंने जो किया वह उचित था या अनुचित ?