Vedanta, Upnishad And Gita Propagandist. ~ Blissful Folks. Install Now

𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

श्री अष्टावक्र गीता भाग 6

जनक और ऋषि अष्टावक्र संवाद : अष्टावक्र गीता भाग 6

 अष्टावक्र गीता भाग 6



अष्टावक्र कहते हैं कि मूढ़ पुरुष हमेशा इसी चिंता में लगा रहता है कि उसके पास कितना है और कितने का अभाव है। वह अभावों की पूर्ति के लिए अनेक प्रकार के छल-प्रपंच, तिकड़म झूठ आदि का सहारा लेता है और जो है उसकी रक्षा में जुटा रहता है। वह अपने इन्हीं लक्ष्यों को पूरा करने के लिए कोल्हू के बैल की तरह इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता है। वह न उन्हें सुखपूर्वक न भोग पाता है और न त्याग पाता है। दूसरी ओर ज्ञानी पुरुष भाव-अभाव की चिंता नहीं करता है। हालांकि उसके पास भी भाव अभाव होते हैं, पर उसको दृष्टि उन पर नहीं जाती है। अष्टावक्र कहते हैं कि कर्म बंधन नहीं है। बंधन है-कामना, आसक्ति, अहंकार ज्ञानी और अज्ञानी दोनों कर्म करते हैं। अज्ञानी के कमों में आसक्ति, कामना होती है और फलाकांक्षा रहती है, जो बंधन का कारण बनती है। दूसरी ओर ज्ञानी के कर्म स्वभाव से होते हैं। वह बालक की तरह काम करता है और फल को आकांक्षा नहीं करता है। कामनारहित होकर किए जाने वाले कर्मों में वह लिप्त नहीं होता है। अष्टावक्र कहते हैं कि आत्मज्ञान में दो ही मुख्य बाधाएँ हैं-शरीर और मन। अज्ञानी की सारी गतिविधियाँ इन दोनों से संचालित होती हैं। ज्ञानी इन दोनों के परे एक तीसरी शक्ति को भी जान लेता है, जो इन सबका साक्षी है और सत्य तथा शाश्वत है। जो व्यक्ति इस मन की बैतरणी पार कर जाता है। वह आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है और धन्य हो जाता है। आत्मतत्त्व का अनुभव कर लेने वाले व्यक्ति सभी कमों को करते हुए देखते हुए सुनते हुए, स्पर्श करते हुए खाते हुए हमेशा एकरस रहते हैं।
अष्टावक्र ज्ञानी पुरुष की तुलना आकाश से करते हुए कहते हैं कि वह आकाश की भाँति स्वच्छ, निर्मल, निर्दोष, निर्विकल्प होता है। ऐसे ज्ञानी पुरुष के लिए न तो कोई साधना रह जाती है और न ही साध्य, न स्वर्ग, न मोक्ष, न आत्मा और न परमात्मा उसे जहाँ पहुंचना था, पहुँच गया। परम उपलब्धि को पाकर वह निर्विकल्प हो जाता है। अष्टावक्र संन्यास और समाधि का वर्णन करते हुए कहते हैं कि आत्मज्ञान प्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति के लिए संन्यास प्रारंभ है। इस दौरान उसे विद्यालय के विद्यार्थी की तरह अनुशासन, स्वच्छ आचरण आदि का पालन करना पड़ता है। पर समाधि-जो अंतिम अवस्था है और जहाँ आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है और मनुष्य पूर्णानंदस्वरूप हो जाता है में नियम-संयम और अनुशासन की आवश्यकता नहीं होती है। ये नियम संगम मन को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक होते हैं और ज्ञान प्राप्ति के बाद मन स्वयं नियंत्रित हो जाता है। समाधि में वह आत्मा में रमण करता है। यह सहज (अकृत्रिम) समाधि है और निरंतर चलती रहती है। कुछ हठयोगी साँस रोककर कई दिन जीवित रह लेते हैं, पर इसका आत्मा से कोई संबंध नहीं होने के कारण यह कृत्रिम समाधि ही होती है। सिर्फ सहज समाधि लगाने वाले संन्यासी को विजय प्राप्त होती है। अष्टावक्र कहते हैं कि अधिक विस्तार से समझाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि तत्त्वज्ञानी महाराय भोग की अवस्था में भी और मोक्ष की अवस्था में भी निराकांक्षी हो जाते हैं। वह हर समय और जगह रागरहित रहते हैं। मानसिक सृष्टि का आरंभ और अंत इसी आत्मतत्त्व से है। भौतिक सृष्टि का आरंभ और अंत इसी ब्रह्मतत्व से है। सिर्फ अहं के कारण भिन्नता महसूस होती है अन्यथा अहं को समाप्ति पर सर्वत्र एकत्व का अनुभव होता है।
अष्टावक्र कहते हैं कि रूप, रंग, गुण आदि के कारण संसार में जो भिन्नताएँ दिखाई देती हैं ये प्रांति के कारण दिखाई देती हैं। एक ही चैतन्य ब्रह्म • विभिन्न क्रिया रूपों में प्रकट है, जिसे महत, अहंकार, पंचतन्मात्रा, पंच महाभूत आदि कहते हैं। ये नाममात्र को ही भिन्न है। इस प्रांति अथवा अज्ञान के कारण मनुष्य अनेक प्रकार के कर्म करता है। इस अज्ञान को मिटाने के लिए अनेक प्रकार की साधनाएँ, योग, भक्ति आदि करता है। पर जिसे आत्मबोध हो जाता है, वह परम तत्त्व को जान लेता है तथा द्वैत जगत् छोड़कर अद्वैत आत्मा में स्थित हो जाता है। अहंकार और वासना के कारण संसार में जितने संबंध, अधिकार, दावे उसने विकसित किए थे वे सब छूट जाते हैं। इसके बाद ज्ञानी के लिए कोई कार्य शेष नहीं रह जाता है। अष्टावक्र कहते हैं कि आत्मज्ञान के बाद व्यक्ति शांत हो जाता है। उसे शांति के लिए जप, तप, नियम, हठयोग, शोपासन आदि नहीं करना पड़ता है, क्योंकि ज्ञान की अवस्था में उसे पूरा जगत् प्रपंच जैसा लगता है। अज्ञान की स्थिति में चित्त की शांति के लिए किए जाने वाले विधि-विधान मनुष्य को अशांति की ओर बढ़ाते हैं। ज्ञान प्राप्ति के बाद सत्य-स्वरूप प्रकट होता है और ज्ञानी शांत चित्त वाला हो जाता है। अष्टावक्र कहते हैं कि परमात्मा का कोई कारण नहीं है। वहीं सबका कारण है उसे किसी ने नहीं बनाया, बल्कि उसी ने सबको बनाया अध्यात्म के अनुसार मूल तत्त्व एक ही है, जो ब्रह्म कहलाता है और सृष्टि उसी की अभिव्यक्ति है पूरी सृष्टि उस शक्ति का सहन स्फुरण है और यह अपने आप हो रहा है। इसीलिए इसे लीला या खेल कहा जाता है।
इसमें चिड़िया चहचहाती है, मोर नाचते हैं, बच्चे उछलते-कूदते हैं, फूल खिलते हैं मूढ व्यक्ति समझते हैं कि परमात्मा ने संसार को इसलिए बनाया कि वह मुक्त हो सके, अपने पाप धो सके। इसलिए वह तरह-तरह के उपाय करता है। दूसरी ओर ज्ञानी के लिए कोई उपाय शेष नहीं रहता है। उसे न वैराग्य की जरूरत है न त्याग की। वह परम शांत अवस्था में रहता है और इसके लिए उसे प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। अष्यवक कहते हैं कि यह संपूर्ण सृष्टि आत्मा का स्फुरण मात्र है, जो अनंत रूपों में स्फुरित हुई है। चेतन तत्त्व आत्मा सूक्ष्म रूप से इसमें व्याप्त है।
अज्ञानी इस स्थूल प्रकृति को देख-देखकर लुभायमान होता है और इसी को सबकुछ समझता है। यह धारणा उसके लिए बंधन का कारण बनती है। दूसरी ओर ज्ञानी इस जड़ प्रकृति को माया रूप समझकर उसके कारण आत्मा को देखता है उसके लिए प्रकृति बंधन नहीं बनती है और जब बंधन नहीं तो मोक्ष की उसे क्या आवश्यकता है? दूसरी ओर सारे हर्ष और शोक प्रकृतिजन्य हैं और स्वयं को मन और शरीर समझने के कारण हैं। चेतना को उपलब्ध हुए ज्ञानी को न तो हर्ष है और न ही शोक। 
अष्टावक्र कहते हैं कि इस संसार में मोह-ममता, राग-द्वेष, ईर्ष्या घृणा आदि विद्यमान है। अतानी इस संसार को सत्य मानकर अनेक प्रकार के कष्ट भोगता है। बुद्धि से अनेक विचार पैदा होते हैं यह मन को संतुष्ट करने के लिए कार्य करती है। अच्छे-बुरे सत्य-असत्य का भेद करती है। बुद्धिपर्यंत संसार में माया हो माया है। सत्य कहीं नहीं है। सत्य तो सिर्फ आत्मा है। ज्ञानी आत्मा की जानने के बाद ममतारहित, अहंकाररहित एवं कामनारहित हो जाता है उसे वासनामय जगत् प्रभावित नहीं कर पाता है। ऐसा मनुष्य संसार में शोभायमान होता है।
अष्टावक्र कहते हैं कि परमात्मा ऊर्जा का सागर है। समस्त सृष्टि इसी ऊर्जा को अभिव्यक्ति मात्र है। शरीरस्य आत्मा भी वही ऊर्जा है। जिस ज्ञानी ने इस अविनाशी संतापरहित आत्मा को जान लिया, उसने सब कुछ जान लिया और सब कुछ पा लिया। उसके लिए विद्या-अविद्या, ज्ञान संसार, देह, अहंता-ममता आदि के लिए कोई स्थान नहीं है। ये सब अज्ञानजनित होने के कारण अज्ञानी को ही प्रभावित करते हैं। आत्मज्ञानी को ये प्रातियों प्रभावित नहीं करतीं।
अष्टावक्र कहते हैं कि मनुष्य के समस्त कर्म, व्यवहार व आचरण चित्त की वृत्तियों का प्रक्षेपण मात्र है। जैसा उसका मन होगा, वैसे ही उसके कर्म और आचरण होंगे। जब वह अपने चित्त की वृत्तियों का निरोध योग आदि से करता है तो उसके चित की चंचलता और बढ़ जाती है, क्योंकि इस निरोध में अपेक्षाएँ, कामनाएँ छुपी रहती हैं। जब मूद व्यक्ति इन फर्मों को छोड़ता है तो उसके पीछे मनोरथ होता है और वह आकांक्षाओं को पूरा करने में जुट जाता है। अष्टावक्र कहते हैं कि यदि मूढ व्यक्ति तत्त्वज्ञान सुन भी लेता है तो भी यह अपने भीतर स्थित अहंकार, कामना, वासना आदि नहीं छोड़ता और आत्मज्ञान से वंचित रह जाता है। ऐसा व्यक्ति अपने बाहरी प्रयत्नों में भले ही निर्विकल्प हो जाए और ज्ञानियों की तरह कर्म करने लगे, पर उसके मन में विषयों के प्रति लालसा बनी रहती है। मंदबुद्धि गूद तत्व को समझने में अक्षम होते हैं। अष्टावक्र कहते हैं कि कर्म तो ज्ञानी भी करते हैं और अज्ञानी भी, पर ज्ञानी के कर्म स्वभाव से होते हैं, लोकहितार्थ होते हैं. आवश्यक और नैमित्तिक होते हैं। वह कर्म को ईश्वरेच्छा समझकर करता है।
वह कभी कहता भी नहीं है कि मैंने ऐसा किया या वैसा किया। उसका अहंकार समाप्त हो जाता है। यही कर्म की कुशलता है, जिसे केवल जानी ही उपलब्ध होता है। अष्टावक्र कहते हैं कि चित्त में वृत्तियाँ होती हैं, वासनाएँ और कामनाएँ होती हैं। अनेक जन्मों में जो कुछ मिला है उसी का संगृहीत नाम चित्त है। बुद्धि इनका सद् और असद् में विभाजन करती है। बुद्धि के कारण सुख-दुःख, लाभ-हानि, प्रेम-घृणा, हिंसा-अहिंसा, प्रकाश अंधकार, त्याग-ग्रहण आदि के मंद को समझ आती है। अस्तित्व में ये भिन्न नहीं हैं। ये सिक्के के दो पहलू हैं, जो रहेंगे तो दोनों ही रहेंगे। यदि मृत्यु हय दी जाए तो जन्म भी नहीं रहेगा। यदि पूणा हटा दी जाए तो प्रेम का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा। नैतिक व्यक्ति दोनों में भेद रखता है। वह अंधकार को हटाकर प्रकाश लाना चाहता है। धार्मिक व्यक्ति सबकुछ ईश्वरीय मानकर दोनों को स्वीकार कर लेता है। ज्ञानो व्यक्ति उस एक आत्मा को जानकर सर्वदा निर्भय और निर्विकार हो जाता है। वह प्रकाश अधिकार, ग्रहण-त्याग में भेद नहीं समझता है।
अष्टावक्र कहते हैं कि निर्भयता वहाँ होती है जहाँ भय होता है। विवेक भी नहीं होता है जहाँ मूड़ता होती है। धैर्य भी वहीं होता है जहाँ व्याकुलता होती है योगी जिसने परम रस को जान लिया वह उसी में निमग्न रहता है। उसका स्वभाव अनिर्वचनीय हो जाता है वह सभी इंडों से पार एकरस हो जाता है।
वह न सिद्धांतों में जीता है और न आदतों में वह स्वभावरहित हो जाता है। आत्मा के स्वभाव के अनुकूल चलते हुए पूर्ण स्वतंत्रता का उपयोग करता है। अष्टावक्र कहते हैं कि योगी केवल आत्मा को मानता है। सारी सृष्टि भ्रम है। स्वर्ग, नरक, जीवन्मुक्ति सभी भ्रम है, जो अज्ञान, अहंकार और वासना के कारण प्रतीत होते हैं। जब अहंकार और वासना समाप्त हो जाते हैं तो केवल एक आत्मा ही शेष रह जाती है और यही सत्य है वासना और अहंकार से मुक्त पुरुष ब्रह्म ही है। जीवात्मा का यही सर्वोच्च शिखर है और योग की यही मान्यता सर्वोपरि है। अष्टावक्र कहते हैं कि दैतवादी धर्म ईश्वर को जीव से भिन्न मानता है। इसलिए जीव प्रार्थना करता है, कृपा को भीख माँगता है। यह अपने आपको निर्बल, अशक्त, अज्ञानी, पापी समझता है और ईश्वर को सर्वशक्तिमान, दयालु, स्रष्टय सहायक मानता है। वह लाभ के लिए प्रार्थना करता है और हानि से डरता है। पर अद्वैतवादी योगी सृष्टि से भिन्न किसी ईश्वर को नहीं मानता है। आत्मा को पहचानने के बाद वह में ही ब्रह्म हूँ" मानने लगता है। ऐसा योगी आत्मा के परमानंद में सर्वदा निमग्न रहता है। उसके चित्त से क्षुद्र वासनाएं, अहंकार आदि छूट जाते हैं और आत्मा रूपी अमृत से पूरित हो जाने से वह शांत और शीवल हो जाता है।
निष्काम पुरुष के लक्षण बताते हुए अष्टावक्र कहते हैं कि जिस व्यक्ति के भीतर जो कुछ भरा होता है वहीं बाहर निकलता है यदि अंदर प्रेम, दया, करुणा, अहिंसा आदि भरा होगा तो वह व्यक्ति लोगों की प्रशंसा करेगा. सहायता करेगा, मानव सेवा करेगा, कुछ नहीं तो आशीर्वाद ही देगा। पर जिस व्यक्ति के भीतर घृणा, हिंसा, स्वार्थ, ईर्ष्या आदि भरा होगा वह लोगों की निंदा करेगा, झगड़ा करेगा, जिद करेगा जो व्यक्ति काम से पीड़ित होता है वह काम को बुरा भला कहता है धन नहीं मिलने पर व्यक्ति उसे पाप कहने लगता है।
दरअसल निंदा और प्रशंसा दोनों वासना और स्वार्थ के कारण ही होते हैं। आत्मज्ञानी के चित्त की सारी वृत्तियाँ शांत हो जाती हैं। वह न निंदा करता है और न ही प्रशंसा करता है। वह समभाव वाला हो जाता है। वह तृप्त, सुखी और शांत हो जाता है। साक्षी भाव धारण करने के कारण वह अकर्ता हो जाता है। ज्ञानी व्यक्ति का संसार से कोई राग नहीं होता है। अपेक्षाएँ न होने के कारण कोई द्वेष भी नहीं होता है। उसके लिए संसार अर्थहीन होता है और अर्थहीन वस्तु से कोई द्वेष नहीं करता है। इसी प्रकार वह आत्मा को देखने को कोशिश भी नहीं करता है। आत्मा अदृश्य है। उसका सिर्फ बोध हो सकता है। देखने की इच्छा रखना भी एक तरह की वासना है। ऐसा व्यक्ति सांसारिक दृष्टि से जीवित जैसा भी नहीं रहता है, क्योंकि उसकी महत्त्वाकांक्षाएँ, आपाधापी सब समाप्त हो जाती हैं, पर वह मरे हुए जैसा भी नहीं होता है, क्योंकि यह न तो अकर्मण्य होता है और न आलसी होता है वह न करते हुए भी बहुत कुछ करता है।
ज्ञानी पुरुष अपने पुत्र, स्त्री आदि के प्रति स्नेह तो रखता है, पर उनके प्रति उसकी कामनाएँ, वासनाएँ और पागलपन समाप्त हो जाता है। वह अपने शरीर की रक्षा तो करता है, पर उसकी चिंता में निमग्न नहीं रहता है। स्वाभाविक रूप से अनाग्रहपूर्वक जो होता है, उसे स्वीकार कर लेता है। वह सभी प्रकार की आशाओं से मुक्त हो जाता है। स्नेह, कर्म आदि के संकीर्ण दायरे से ऊपर उठा हुआ ज्ञानी संसार में शोभा पाता है।
अष्टावक्र ज्ञानी पुरुष का वर्णन करते हुए कहते हैं कि परम को प्राप्त कर लेने वाला ज्ञानी शुद्र की कामना से मुक्त हो जाता है वह कर्म करता है पर फलाकांक्षा नहीं करता है। कर्म के फलस्वरूप जो मिल जाए, उसी से अपनी जीविका चला लेता है। ज्ञानी स्वनिर्भर होता है। वह भोजन के लिए भी दूसरों पर निर्भर नहीं होता है जो मिल जाए उसी को प्रेमपूर्वक खा लेता है वह स्थान विशेष से नहीं बंधता है और स्वच्छंद विचरण करता है जब सूर्यास्त हो जाता है तो जैसी भी स्थिति हो चितानिमग्न होकर सो जाता है। वह किसी नियम से नहीं बंधता है और सर्वत्र संतुष्ट रहता है।
इसी क्रम में अष्टावक्र कहते हैं कि ऐसा ज्ञानी पुरुष सांसारिक नियमों, बंधनों में न जोकर आत्मा के स्वभाव में जीता है। वह संसार को विस्मृत कर देता है। उसकी अपने शरीर के प्रति आसक्ति समाप्त हो जाती है वह मृत्यु को भी आनंद के साथ ही स्वीकार करता है। दरअसल ज्ञानी मरता नहीं है; वह सिर्फ शरीर परिवर्तन करता है, क्योंकि उसका स्थायी निवास तो आत्मा है। वह उसी में लीन रहता है। मनुष्य संसार, स्त्री, पुत्र, धन, नगर, देश, धर्म, जाति, वर्ण आदि संकीर्ण मेरों में बंधा रहता है।
इसके पीछे उसका स्वार्थ निहित रहता है। उसकी दृष्टि भी संकीर्ण हो जाती है और वह इनसे बाहर की बात नहीं सोच पाता है।
संकीर्ण मान्यताओं, विचारों सिद्धांतों और नियमों से बँधा व्यक्ति पिंजड़े के पंछी की तरह फड़फड़ाता है और उसी में प्राण त्याग देता है। दूसरी ओर ज्ञानी बंधनमुक्त होकर खुले आकाश में स्वच्छंद विचरण करता है वह द्वंदों से दूर परम आनंद में रहता है। वह संशयरहित होता है। वह अपने आपको अकेला और अकिंचन मानता है और सभी का हो जाता है। आसक्तिरहित होने के कारण वह विराट् का सुख भोगता है और सभी भावों में रमण करता है। अष्यवक्र कहते हैं कि मनुष्य को मिट्टी, पत्थर और सोने में भेद इसलिए मालूम होता है, क्योंकि उसके अंदर ममता है। वह सोने को मूल्यवान समझता है। अपनी आवश्यकताएं पूरा करना बुरा नहीं है, पर आसक्ति के कारण अनावश्यक वस्तुओं का परिग्रह बुरा है ज्ञानी स्वस्येंद्रिय होता है उसकी हृदय ग्रंथि खुल जाती है। उसका रज और तम धुलकर शुद्ध सत्त्व बच जाता है। वह ममतारहित, आसक्तिरहित होकर निद्वंद्र हो जाता है। ऐसा व्यक्ति संसार में शोभायमान होता है। वासनायुक्त व्यक्ति सब कुछ पाकर अतृप्त हो रहते हैं। बड़े शूरवीर राजा संसार जीतकर भी अतृप्त ही मर जाते हैं। बड़े-बड़े धनवान व्यक्ति अतृप्त भर जाते हैं। दूसरी ओर जिसकी वासना नष्ट हो जाती है वह हर हाल में तृप्त रहता है। वासनायुक्त व्यक्ति व्यवधानों में उलझा रहता है। दूसरी और वासनारहित व्यक्ति व्यवधानों से विचलित नहीं होता है और मुक्त ही रहता है। ऐसे ज्ञानी की तुलना किसी से नहीं की जा सकती है वह पूर्ण हो जाता है। अज्ञानी जब देखता या बोलता है तो वह स्वार्थ से बंधा होता है और इसलिए उसकी गतिविधि में संकीर्णता होती है।
वह जो नहीं जानता उसे भी जानने का दावा करता है और जो नहीं देख पाता उसे भी देखने का दावा करता है। आत्मा और परमात्मा को उसने न देखा है और न ही जाना है, पर वह रोज इनकी दुहाई देता है। दूसरी ओर ज्ञानी सब कुछ जान लेता है, पर फिर भी कहता है कि मैं कुछ नहीं जानता सब कुछ स्पष्ट और प्रत्यक्ष देखकर भी कहता है कि मैं कुछ नहीं देखता जब बोलता है तो उसमें दुराग्रह बिलकुल नहीं होता है।
जीवन एक त्रिवेणी है जिसमें गंगा और यमुना तो प्रकट हैं, पर तीसरी सरस्वती गुप्त है। जीवन में शरीर और मन तो प्रकट हैं, पर तीसरी चेतना गुप्त है अज्ञानी तो शरीर और मन तक सीमित रहते हैं, पर ज्ञानी चेतना को भी जान लेते हैं। मन के तल पर जीने वाले अज्ञानी सृष्टि को दो भागों में बाँट देते हैं और उन्हें सुख-दुःख, सज्जन दुर्जन आदि दिखाई देते हैं। दूसरी ओर ज्ञानी मन को पार कर लेता है और समत्व बुद्धि वाला हो जाता है। अष्टावक्र कहते हैं कि जिसकी सब भावों में शोभन अशोभन बुद्धि गलित हो गई है और जो निष्काम है, वह चाहे भिखारी हो या भूपति सर्व शोभायमान होता है।
सृष्टि के मूल तत्व आत्मा को जानने वाला योगी निष्कपट, सरल और यथार्थ चरित्र वाला हो जाता है उसके लिए स्वच्छंदता, संकोच और तत्व की निश्चय जैसी कोई धारणा नहीं होती। वह मानस तल की स्वच्छंदता और संकोच आदि से पार हो जाता है।
आत्मज्ञानी के अनुभवों के बारे में बताते हुए अष्टावक्र कहते हैं कि आत्मज्ञान के बाद व्यक्ति तृप्त हो जाता है, निस्पृह (इच्छारहित) तथा शोकरहित हो जाता है। आत्मा में विश्राम कर रहे व्यक्ति के अनुभव अनूठे और सांसारिक अनुभवों से कतई भिन्न होते हैं इनको समझाना तर्क द्वारा साबित करना कठिन है, क्योंकि दूसरा व्यक्ति जो इस अनुभव से दूर-दूर तक परिचित नहीं है, इसे नहीं समझ सकता, इसीलिए ज्ञानी मौन हो जाते हैं। बोध होने के बाद पुरानी धारणाएँ, मान्यताएँ नष्ट हो जाती है। संसाररूपी स्वप्न टूट जाता है और एक नई ही दुनिया का अनुभव होता है। अष्टावक्र कहते हैं कि ज्ञानी और अज्ञानी दोनों सोते हैं। अज्ञानी जब स्वप्न देखता है तो स्वयं को भूल जाता है। वह दूसरी दुनिया में प्रवेश कर जाता है। जब वह सुषुप्ति अर्थात् गहरी नींद में होता है तो स्वप्न खो जाते हैं, उसे किसी का ज्ञान नहीं रहता है। दूसरी ओर जानी की निद्रा संसारी से भिन्न होती है। वह स्वप्न में भी जागा रहता है। स्वप्न देखते समय उसे यह मान रहता है कि यह सत्य नहीं स्वप्न है। इसी प्रकार सुषुप्ति अर्थात् गहरी नींद में भी वह जागा सा रहता है। इस समय उसका संबंध आत्मा से होता है और वह आनंदित रहता है। योगी जागृत अवस्था में भी बाह्य वस्तुओं से प्रभावित नहीं होता है और इसलिए वह जागा हुआ-सा भी नहीं लगता है। वह तीनों अवस्थाओं में आत्मा का अनुभव करता है और तृप्त रहता है। ज्ञानी पुरुष की इंद्रियाँ भी अपना-अपना काम करती हैं। वह खाता है, पीता है, सुनता है, स्पर्श करता है, पर उनमें आसक्त नहीं होता है।
वह इंद्रियाँ का उपयोग आवश्यकतापूर्वक करता है। वह अपनी बुद्धि का मालिक होता है। वह आवश्यकता पड़ने पर अहंकार, विनम्रता आदि का प्रयोग भी करता है, पर इनका दास नहीं होता है। वह कर्ता के बजाय साक्षी भाव से कार्य करता है और ज्ञानी के कर्म सृष्टि के नियमों में बाधा नहीं डालते हैं।
ज्ञानी समत्व बुद्धि वाला होता है और उसकी स्थिति द्वंद्रों से पार हो जाती है। वह अज्ञानी को भारत एक अति से दूसरी अति की ओर नहीं भटकता है। जिस प्रकार वीणा के तारों से संगीत तब निकलता है जब वे न तो ज्यादा ढीले हॉ और न ही ज्यादा कसे हुए हॉ अज्ञानी अतियों का आनंद लेता है, जबकि ज्ञानी अंतियों के बीच संतुलन रखता हुआ एक ही रस्सी पर ध्यान टिकाए चलता है। इसलिए ज्ञानी न तो दुखी होता है और न सुखी न संगयुक्त होता है और न विरक्त, वहन मुमुक्षु होता है और न मुक्त वह अपने आपको श्रेष्ठ भी नहीं मानता और नगण्य भी नहीं। वह हमेशा संतुष्ट रहता है।
जब ज्ञानी आत्मज्ञान प्राप्त करने के कारण समस्थिति को प्राप्त कर लेता है तो वह विशेषों को भी सहन कर लेता है। वह समाधि में रहता है, पर अन्य समाधि का अभ्यास करने वालों से भिन्न होता है। यह अन्य उद्यमियों की तरह भाग-दौड़ नहीं करता, पर वह कभी जड़ नहीं होता, हमेशा पूर्ण चैतन्य रहता है। पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेने पर भी अपने पांडित्य का अहंकारपूर्ण प्रदर्शन नहीं करता है वह तर्क वितर्क में विश्वास न करते हुए स्वाभाविक रूप से अपनी बात प्रस्तुत कर देता है। मुक्त पुरुष न तो किए गए कर्मों प्रसन्न होता है और न ही न किए। गए कर्मों पर शोक करता है। अज्ञानी बंधनों से ग्रस्त रहता है और कामना वासना और अहंकार से पीड़ित रहता है। वह रुग्ण है। दूसरी ओर बंधनों को तोड़ चुका ज्ञानी पुरुष स्वस्थ है, वह किए हुए और करने योग्य कर्मों में तृप्त रहता है। सहज भाव धारण करने के कारण हर स्थिति में समान रहता है। अपने किए और अनकिए कर्मों का स्मरण वही रखता है जो तृष्णा से पीड़ित रहता है। ज्ञानी पुरुष अपने किए और अनकिए कर्मों का लेखा-जोखा नहीं रखता है। मनुष्य अपने अंदर स्थित अहंकार के कारण निंदा की चोट लगने पर कुछ हो जाता है और प्रशंसा होने पर प्रसन्न हो जाता है। अज्ञानी इनसे बहुत ज्यादा प्रभावित होता है, जबकि ज्ञानी पर निंदा या प्रशंसा का कोई असर नहीं होता है। मुक्त पुरुष मृत्यु के समय भी उद्विग्न नहीं होता है, क्योंकि वह उसे स्वाभाविक गतिविधि मानता है। वह जीवन को सृष्टि का नियम मानते हुए हर्षित भी नहीं होता है। अष्टावक्र कहते हैं कि भागदौड़ यही करता है, जिसे कुछ पाने की इच्छा होती है। जब ज्ञानी परम तत्व को पा लेता है तो वह मुक्त हो जाता है और उसकी सारी भाग-दौड़ समाप्त हो जाती है पूरी सृष्टि में एकत्व का अनुभव करने वाले ज्ञानी को न तो भीड़-भाड़ वाला नगर भाता है और न ही सुनसान बन। उसे महल और झोपड़ी एक जैसी लगती है। वह चुनावरहित हो जाता है।
इसके साथ ही अष्टावक ने 100 श्लोकों वाला 'आत्मज्ञान शतक', जो 'शांति शतक' के नाम से प्रसिद्ध है, राजा जनक को सुनाया और सिद्ध किया कि आत्मज्ञान से हो शांति मिल सकती है। राजा जनक बाल गुरु अष्यवक का उपदेश ध्यान से सुन रहे हैं। उन्होंने इस संवाद के प्रारंभिक दौर में ही आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है। उन्होंने अपने गुरु द्वारा ली गई परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली है। अपने गुरु का दीक्षांत भाषण भी सुन लिया है। पूरे उपदेश में उन्होंने एक बार भी शंका व्यक्त नहीं की है। उन्होंने अर्जुन की तरह तर्क भी नहीं किया और गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा बनाए रखी है। दरअसल वे ज्ञान की तलाश में बहुत वर्षों से थे। पात्रता बहुत पहले प्राप्त कर ली थी। उनका अंतःकरण शुद्ध था, इसलिए पूरा का पूरा उपदेश वे अमृत के समान पी गए। अब वे कृतकृत्य हैं। तत्त्वज्ञान के बाद अष्टावक्र अब राजा जनक को विदा कर रहे हैं। दूसरी और राजा जनक अष्टावक्र के इस महान उपकार के लिए अपना धन्यवाद व्यक्त करना चाहते हैं, पर उनके पास उचित शब्द नहीं हैं। अतः वे अपनी आत्म-स्थिति का वर्णन कर रहे हैं जो उन्हें अपने महान् गुरु से प्राप्त हुई है। उन्हें लग रहा है कि आत्मज्ञान तो पूर्ण शल्य क्रिया है, जिसमें सभी विजातीय तत्त्व लूट जाते हैं और शुद्ध आत्मज्ञान शेष रहता है। वह लगभग वैसा ही है, जैसे भट्टी में गलाकर और अनेक प्रक्रियाओं द्वारा शुद्ध स्वर्ण निकाल लिया जाता है और अन्य विकार रह जाते हैं। वैसे मृत्यु के समय सिर्फ शरीर जाता है, पर बाकी सब विकार साथ रह जाते हैं और पुनर्जन्म का कारण बनते हैं, अत: आत्मज्ञान मृत्यु से भी परे की चीज है। मनुष्य के विचार उसके सुख-दुःख सहित अनेक द्वंद्रों के कारण होते हैं।

शेष अष्टावक्र गीता भाग 7 में


1 टिप्पणी

  1. बहुत सुंदर बात धन्यवाद
This website is made for Holy Purpose to Spread Vedanta , Upnishads And Gita. To Support our work click on advertisement once. Blissful Folks created by Shyam G Advait.