श्री अष्टावक्र गीता: महर्षि अष्टावक्र और जनक संवाद
संसार से मुक्ति के दो मार्ग बताए जाते हैं। एक प्रवृत्ति मार्ग और दूसरा निवृत्ति मार्ग।
 प्रवृत्ति मार्ग वाले कहते हैं कि भोग से ही मुक्ति होती है। प्रारब्ध कमों के कारण ही यह जीवन मिला है, अतः इन्हीं कमों को भोगे बगैर मुक्ति संभव नहीं है। आत्मज्ञानी को भी प्रारब्ध कर्म तो भोगने ही पड़ते हैं। दूसरी ओर निवृत्ति मार्ग वाले सांसारिक कर्मों को छोड़ने का प्रयास करते हैं। वे भी अहंकार के कारण कर्मों का उल्लंघन करते हैं। हठयोगी भी हठपूर्वक इंद्रियों की क्रियाओं को रोक तो देते हैं, पर भीतर वासनाएँ चलती रहती हैं। आसक्ति बने रहने के कारण व्यक्ति पाखंडी हो जाता है। प्रवृत्ति मार्ग वाले मुक्त होने से पहले भोग लेना चाहते हैं, ताकि संतुष्टि मिल जाए और निवृत्ति मार्ग वाले समझते हैं कि जितना भोगोगे, वासनाओं के प्रति आकर्षण उतना ही बढ़ेगा और वे छोड़ने का प्रयास करते हैं। अष्टावक्र इन दोनों मार्गों से अलग तीसरा रास्ता बताते हुए कहते हैं कि प्रवृत्ति से राग उत्पन्न होता है, जबकि निवृत्ति से द्वेष पैदा होता है जो कि बंधन का कारण है, इसलिए आत्मज्ञानी पुरुष को प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों से मुक्त होकर बालक के समान निद्र होकर सरल और स्वाभाविक जीवन जीना है। ऐसा पुरुष स्वभाववश जो होता है कर लेता है। वह वासनायुक्त कर्म में न तो लिप्त होता है और न ही उसका त्याग करता है।
अष्टावक्र कहते हैं कि वह पुरुष भी रागी ही है जो सांसारिक दुःखों से बचने के लिए संसार का त्याग करना चाहता है। पर बार, पत्नी-बच्चे, धन-संपत्ति आदि छोड़ने पर भी उसके दुःख समाप्त नहीं होते हैं उसे जंगल में भी शांति नहीं मिलती है। ऐसे में वीतराग होना ही दुःखों से मुक्ति का एकमात्र उपाय है। बीतरागी पुरुष तृष्णा को छोड़कर मानसिक दुःखों से मुक्त रहता है और आनंद की अनुभूति करता है।
ज्ञान और योग में सिद्धि अत्यंत कठिन प्रक्रिया है। योगी अष्टांग योग साधता है यम, नियम, आसन, प्राणायाम की क्रिया से विधिपूर्वक एक-एक सीढ़ी आगे बढ़ता है। कभी वह गिर भी जाता है तो फिर उठकर अगली सीढ़ी पर पहुंचता है। दूसरी ओर ज्ञानी बिना क्रिया के वहाँ पहुँचता है। बोध मात्र से वह अस्तित्व से अनस्तित्व में छलांग लगा देता है। अष्टावक्र कहते हैं कि अगर ऐसे जानी और योगी भी अहंकार के शिकार हो जाएँ और सोचने लगे कि अब मैं मुक्त हो गया, कैवली हो गया, सिद्धशिला पर बैठ गया, मैं ब्रह्म हो गया, अब मेरे से बड़ा कोई नहीं है, और शरीर के प्रति ऐसी ममता हो जाए कि लोग शरीर की पूजा करें. शोभायात्रा निकाले, गुरु, तीर्थंकर भगवान् मानें तो ऐसा व्यक्ति न तो ज्ञानी है और न ही योगी वह केवल दुःख का भोगी बनता है। ज्ञानप्राप्ति के पश्चात् गुरु की भूमिका समाप्त हो जाती है। ज्ञानी गुरु अष्टावक्र जनक से कहते हैं कि ज्ञानप्राप्ति के लिए अन्य बातों का विस्मरण आवश्यक है, क्योंकि जब तक व्यक्ति स्मरण करता रहेगा तब तक मुक्त नहीं हो पाएगा। अगर किसी व्यक्ति ने ब्रह्मा, विष्णु या महेश से भी ज्ञान प्राप्त किया है तो भी उसका विस्मरण अर्थात् भूलना आवश्यक है। इसके बिना शांति और मुक्ति नहीं मिल सकती है।
अष्टावक्र आगे कहते हैं कि जो व्यक्ति तृप्त है, शुद्ध इंद्रियों वाला है और सदा एकाकी रमण करता है उसी को ज्ञान और योगाभ्यास का फल मिलता है। इसके विपरीत ज्ञानप्राप्ति के बाद भी जो तृप्त नहीं है और उसकी वासनाएँ अभी सक्रिय हैं और वह अभी भी संगी-साथियों, मित्र-शत्रु हितैषी-द्वेषियों में उलझा रहता है वह ज्ञानप्राप्ति के फल से वंचित रह जाता है और वासनाओं से घिर जाता है।
तत्त्वज्ञानी यह जानते हैं कि यह समस्त ब्रह्मांड मंडल उसी एक आत्मा का विस्तार है, उसी एक से परिपूर्ण है, अत: दूसरा कुछ है ही नहीं अतः दुःख किससे होगा? इसलिए तत्वज्ञानी इस जगत् में किसी भी परिस्थिति में दुखी नहीं होता है।
यह निर्विवाद है कि विषयों में कुछ क्षणों के लिए आनंद मिलता है तभी संसार इनके पीछे पागलों की तरह भागता है। कुछ लोगों ने विपरीत सिद्धांत का प्रचार किया कि सांसारिक सुखों से दूर भागो पर दुनिया से दूर भागने से कभी किसी को सुख नहीं मिला प्रत्यक्ष को छोड़कर परोक्ष की कामना करने वाला विवेकी नहीं हो सकता है। छोड़ना पाने की शर्त नहीं है। यदि उच्च मिल जाएगा तो निम्न अपने आप छूट जाएगा। अष्टावक्र कहते हैं कि जिस प्रकार सल्लकी के पत्तों के मिल जाने पर हाथी नीम के पत्ते देखकर प्रसन्न नहीं होता है इसी प्रकार जिसे आत्मानंद-जो चिरस्थायी सुख प्राप्त हो गया हो उसे सारिक सुख नहीं भाते हैं।
आत्मज्ञानी के व्यवहार का वर्णन करते हुए अष्टावक्र कहते हैं, "हजारों मनुष्यों में से कोई एक व्यक्ति अंतःकरण की शुद्धि के लिए प्रयास करता है। इनमें से भी कोई बिरला ही आत्मा के यथार्थ को जान पाता है। ऐसे आत्मज्ञानी भोगे हुए विषयों में वासना नहीं रखते हैं, क्योंकि वे स्मृति से मुक्त हो जाते हैं। ऐसा ज्ञानी न भोग पाए विषयों के प्रति भी आकांक्षा नहीं रखता है ऐसा दुर्लभ आत्मज्ञानी आत्मा में ही तृप्त रहता है।
"हमारे चित्त में अनेक तरंगें उठती रहती हैं। तमाम लोगों में ये तरंगें सांसारिक भोग की इच्छा के लिए उठती हैं। अनेक लोगों में ये तरंगे मोक्ष की इच्छा के लिए भी उठती हैं। मनुष्य मोक्ष के लिए भी यत्न करता है। इन कारणों से मनुष्य अशांत बना रहता है।" अष्टावक्र कहते हैं कि इस संसार में बिरला ही एक ऐसा व्यक्ति मिलता है, जिसे न भोग की आकांक्षा है और न मोक्ष की ऐसा व्यक्ति आत्मज्ञानी हो हो सकता है।" आत्मज्ञानी के अन्य गुण बताते हुए अष्टावक्र कहते हैं कि आत्मज्ञानी उदारचित होता है, क्योंकि उसी को संपूर्ण सृष्टि में एक ही आत्मा दिखाई देती है और भिन्नता कतई दिखाई नहीं देती है। आत्मज्ञानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को तथा जीवन और मृत्यु को तथा संसार को भी न तो ग्रहण करने योग्य समझता है और न ही त्यागने योग्य वह जीवन्मुक्त होता है।
आत्मज्ञानी को विश्व की स्थिति पर न तो प्रसन्नता होती है और न ही द्वेष वह संपूर्ण विश्व को साक्षी भाव से देखता है वह न अधिक की कामना करता है और न कम मिलने पर दुखी होता है उसे जो आजीविका मिल जाती है उसे पाकर सुखपूर्वक जीता है। एक हो चैतन्य आत्मा इस संपूर्ण सृष्टि का आधार है। इसी चेतना से सबसे पहले बुद्धि उत्पन्न हुई। इस बुद्धि से अहंकार पैदा हुआ, जिसके कारण जोव ने अपने आपको उस चैतन्य आत्मा से भिन्न अनुभव किया यह अज्ञान ही उसका पाप बन गया। आत्मा महासागर है और बुद्धि एक छोटी चम्मच जैसी है। बुद्धि छोटा पैमाना है जिससे छोटे-मोटे कार्य हो सकते हैं, पर उस विराट् चेतना को नहीं नापा जा सकता है। मनुष्य की यह बुद्धि तर्क-वितर्क, प्रश्न-उत्तर, चिंतन-मनन कर सकती है। अच्छे-बुरे में भेद कर सकती है, पर इससे विराट् नहीं जाना जा सकता है। चेतना बुद्धि से पार है और जो कार्य बुद्धि से नहीं होते वे चेतना से हो जाते हैं। उच्चकोटि का सारा ज्ञान चेतना से संभव होता है। बड़ी-बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धियाँ, गणित, उच्चकोटि का साहित्य, अध्यात्म, वेद, पुराण आदि सीधे चेतना से ही आए हैं। अष्टावक्र कहते हैं कि जो आत्मज्ञान से कृतार्थ अनुभव कर लेता है उसकी बुद्धि गलित हो जाती है। वह क्षुद्र से विराट् हो जाता है उसे संपूर्ण कार्यों, विधि-विधान का ज्ञान हो जाता है। वह इस संसार से विमोहित न होकर स्वाभाविक रूप से अनिवार्य कमों को करता हुआ संसार के प्रति साक्षी भाव रखता है और सुखपूर्वक रहता है।
बुद्धि का अनुभव शुद्र का ही अनुभव है। यह अनुभव संसार तक हो सीमित है। चेतना का अनुभव विराट् का अनुभव है। वह समग्र को एक साथ देखता है। उसके लिए यह संसाररूपी सागर छोटी क्षीण वस्तु के समान हो जाता है। ऐसे समग्र के द्रष्टा आत्मज्ञानी को संसार में न तृष्णा होती है और न ही विरक्ति उसकी दृष्टि पूर्ण हो जाती है वह व्यक्ति सब कुछ पा जाता है और इसलिए उसके द्वारा इंद्रियों का प्रयोग और चेष्टा आदि करना निरर्थक हो जाता है। परमानंद के प्राप्त होने पर क्षणिक सुख अपने आप छूट जाते हैं।
मुक्त चेतना वाला वह व्यक्ति उस विराट् का अनुभव कर लेता है और सांसारिक कर्मों का साक्षी मात्र रह जाता है। उसकी शारीरिक क्रियाएँ, जैसे सोना-जागना, पलक खोलना बंद करना आदि स्वभाववश होती हैं और वह इनके लिए कतई प्रयास नहीं करता है। ज्ञान की यह परम दिशा है चेतना की चार दिशाएँ होती हैं- जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय जागृति में अहंकार, कर्ताभाव आदि होता है। स्वप्न में यह भाव क्षीण हो जाता है सुषुप्ति में इनका अभाव हो जाता है। चौथी तुरीय अवस्था में व्यक्ति अपने आप को परमात्मा में विलीन कर लेता है।
आत्मज्ञानी पुरुष हर्ष, विषाद, सुख-दुःख आदि ढूंदों से पार हो जाने से सदा स्वस्थ शांत एवं विमल आशय वाला हो जाता है। यह सभी वासनाओं से रहित हो जाता है। वासनाग्रस्त व्यक्ति संकीर्ण दायरे में सोचता है। ज्ञानी वासनाओं से रहित होकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना वाला होता है ऐसा व्यक्ति सर्वत्र सुशोभित होता है।
जीवन्मुक्त व्यक्ति के लक्षण बतलाते हुए अष्टावक्र कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति अपने स्वाभाविक कर्मों, जैसे-देखता हुआ सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ सूचता हुआ, खाता हुआ, ग्रहण करता हुआ बोलता हुआ चलता हुआ भी इनमें लिप्त नहीं होता है वह हित-अहित से मुक्त रहता है।
परमात्मा सभी रसों का रस है यह पूर्णानंद है। जिसे वह आनंद मिल गया उसे संसार के सभी रस फीके लगने लगते हैं। वह रसरहित हो जाता है। यदि संसार में तृप्त होने लायक सुख होता तो मनुष्य परमात्मा को नहीं ढूंढ़ता जीवन्मुक्त व्यक्ति न तो किसी की निंदा करता है और न ही स्तुति, वह न तो प्रसन्न होता है और न ही गुस्सा, वह न तो ग्रहण करता और न ही त्याग करता है वह आग्रहपूर्वक कुछ भी नहीं करता है, स्वभाववश जो कुछ भी होता है कर लेता है।
मनुष्य का मन बंधन का कारण है। मन में दो वृत्तियाँ राग और भय शांत नहीं होती हैं। विषयों में राग होता है। इनमें काम सबसे शक्तिशाली है काम से जीवन उत्पन्न होता है। वासना, कामना, सृजन की ऊर्जा ही काम है। यह सृष्टि काम का विस्तार है, इसलिए मनुष्य इसकी और आकर्षित होता है। दूसरो वृत्ति भय है, जिसमें मृत्यु से भय सर्वाधिक होता है। मनुष्य में जीने की इच्छा अत्यंत प्रबल होती है। यह भी दरअसल राग और वासना के कारण होती है। जो मनुष्य अतृप्त है और जिसने संसार का पूरा भोग नहीं किया है, वह मृत्यु से बहुत घबराता है। यदि राग और वासना छूट जाए तो मृत्यु से भय नहीं लगता है।
अष्टावक्र कहते हैं कि जो व्यक्ति प्रोतियुक्त स्त्री और समीप में उपस्थित मृत्यु को देखकर भी अविचल रहता है और उसके मन में कोई विकार नहीं होता है वह निश्चित रूप से मुक्त है। सुख-दुःख का भेद चाह के कारण होता है। यदि इच्छा बदल जाए तो दुःख सुख में और सुख दुःख में बदल जाता है। सृष्टि में सुख और दुःख का स्पष्ट विभाजन नहीं है। इसी तरह स्त्री-पुरुष की भिन्नता सिर्फ शरीरगत है। आत्मा न तो स्त्री है और न ही पुरुष इसी प्रकार संपत्ति और विपत्ति मन का ही प्रक्षेपण है। आत्मज्ञानी पुरुष समदर्शी होता है। अष्यवक्र कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति के लिए सुख-दुःख, नर-नारी, संपत्ति विपत्ति में कोई अंतर नहीं होता है। अष्टावक्र कहते हैं कि जो व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है और परमतत्त्व को जान लेता है उसका संसार के प्रति आकर्षण समाप्त हो जाता है। वह मनुष्य के बीच में भिन्नता नहीं देखता है, क्योंकि उसे संपूर्ण सृष्टि एक आत्मा दिखाई देती है। इसके बाद उस मनुष्य के लिए हिंसा, करुणा, उदंडता, दीनता आदि का कोई अर्थ नहीं रहता और वह इन गुणों से परे हो जाता है। अष्टावक्र आगे कहते हैं कि जीवन्मुक्त पुरुष संसार के क्षणभंगुर भोगों का त्याग करके आत्मानंद का शाश्वत भोग कर रहा है। कुछ तथाकथित साधु विषयों से द्वेष करते हैं और दुखी रहते हैं। दूसरी ओर आम संसारी इन विषयों के लालच में भागता रहता है, वह भी दुखी रहता है। जीवन्मुक्त व्यक्ति इन विषयों से न तो द्वेष करता है और न ही उनका लालच करता है। अष्टावक्र के अनुसार आत्मज्ञानी को किसी चीज में आसक्ति नहीं होती है। उसे जो चीज प्राप्त हो जाती है उसका वह भोग करता है, जो चीज नहीं मिलती उसकी चिंता नहीं करता है।
आत्मज्ञानी पुरुष का चित्त शति अर्थात् शून्य हो जाता है। उसमें विचार, वासना, कामना की तरंगें उठना बंद हो जाती हैं। इस स्थिति को केवल्य की स्थिति कहते हैं। ऐसे व्यक्ति के मन में किसी समस्या के समाधान, असमाधान, हित, अनहित आदि की बात नहीं उठती है।
अष्यवक आगे कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति चित्त की शून्यता को प्राप्त करके आत्मा में स्थित हो जाता है। उसकी सारी आशाएँ गलित हो जाती हैं। वह आत्मा के अलावा और किसी को नहीं जानता है। वह न तो किसी से ममता करता है और न किसी बात पर अहंकार वह अपने कार्य अवश्य करता है, पर उसमें कर्ताभाव नहीं होता, वह अलिप्त रहता है। आत्मज्ञान में सबसे बड़ी बाधा मन होती है। कर्म, मोह, स्वप्न एवं जड़ता का आभास मन से ही होता है जिसका मन गलित हो जाता है, उसके कर्म, मोह, स्वप्न एवं जड़ता सब समाप्त हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति पूर्ण चैतन्य और जागृत अवस्था को प्राप्त कर लेता है और इस दशा का वर्णन असंभव है। अब अष्टावक्र ने आत्मज्ञान के सौ श्लोकों का वाचन प्रारंभ किया। इसके आरंभ में अध्यवक्र आत्मा अर्थात् ब्रह्म को नमस्कार करते हैं जो एकमात्र है और संपूर्ण सृष्टि में उससे भिन्न और कुछ भी नहीं है। अध्ययन के अनुसार आत्मा आनंदस्वरूप है. शांत और तेजोमय है। इसका ज्ञान होते ही सभी प्रकार के भ्रम स्वप्न की भांति समाप्त हो जाते हैं।
अष्टावक्र कहते हैं कि मनुष्य अनेक प्रकार की धन-संपत्ति कमाता है और उनका भोग सुखप्राप्ति के लिए करता है। पर वास्तविक सुख तो धन के त्याग के बाद ही मिल पाता है। धन के त्याग का अर्थ धन कमाना बंद करके आलसी और निकम्मा हो जाना नहीं है वरन धन के प्रति आसक्ति का त्याग है धन से जो सुख मिलता है वह अस्थायी होता है। ज्ञानी संतोष को ही परम सुख मानते हैं। देने में जो सुख है वह लेने में नहीं है। जो समाज से कम से कम लेता है और अधिक से अधिक देता है वहीं परम सुख के साथ जी सकता है।
अष्टावक्र कहते हैं, आम तौर पर अपने कर्तव्य करने से कष्ट होता है और मनुष्य का अंतर्मन उस दुःखरूपी सूर्य के ताप से जलता है। इसका एकमात्र उपाय है शांतिरूपी अमृतधारा की वर्षा, जिससे मनुष्य सुखी हो सकता है। इसका अर्थ यह है कि अगर मनुष्य कतपन जो अहंकार का कारण है भूल जाए और स्वभाववश कर्म करे तो उसे आनंद मिलेगा। स्वयं को निमित्त मानकर कर्म करने से दुःख नहीं होता वरन् शांति मिलती है।
अष्टावक्र कहते हैं कि यह संसार भावना मात्र है। हर व्यक्ति अपनी भावना के अनुसार ही संसार को देखता है, इसलिए सबको यह भिन्न-भिन्न दिखाई देता है। जैसे स्वप्न भी मन का प्रक्षेपण है। वह सत्य प्रतीत होता है। नींद टूटने पर ही लगता है कि यह स्वप्न था या भ्रांति थी। इसी प्रकार संसार के प्रति प्रांति भी आत्मज्ञान से ही मिटती है। ज्ञानियों के अनुसार संसार परमार्थतः कुछ भी नहीं है। परमार्थ (परम-अर्थ) में आत्मा ही सत्य है। आत्मा भाव-रूप है और संसार अभाव-रूप है। दोनों में जो स्वभाव-रूप आत्मा है वही सत्य है और उसका कहीं भी अभाव नहीं है।
इसके बाद अष्टावक्र आत्मा की स्थिति और उसकी विशेषताओं को बताते हुए कहते हैं कि आत्मा कहीं किसी सातवें आसमान पर नहीं है, न ही यह किसी अदृश्य लोक में या स्वर्ग में है। यह स्वयं के अंदर है और सदा ही उपलब्ध रहती है। विकारों की धूल पोंछकर स्वयं को जागृत अवस्था में लाने से यह प्राप्त हो जाती है। विचारों के घने बादलों के बीच यह छुप जाती है, विचारशून्य होने पर इसका ज्ञान होता है। इस निर्विकल्प आत्मा को हम निर्विकल्प होकर हो जान सकते हैं। यह निर्विकार निर्दोष है। इसे न तो होना न जा सकता है और न ही चोर चुरा सकते हैं। यह सिर्फ विस्मृत हो सकती है, अतः इसे पुनः स्मृति में लाना आवश्यक है।
आत्मज्ञानी के विषय में अष्टावक्र कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति द्वंद्रों से पार होकर बिना शोक वाला और निरावरण दृष्टि वाला हो जाता है वह सभी को सीधा देखता है मोह-ममता, राग-द्वेष, प्रेम-घृणा की दृष्टि से नहीं देखता है। ऐसा व्यक्ति हो शोभायमान होता है।
अष्टावक्र आगे कहते हैं, "यह समस्त संसार कल्पना मात्र है। जैसी अच्छी-बुरी कल्पना करता है, संसार उसे वैसा ही दिखाई देता है। अज्ञानी मनुष्य पुरुष संसार का वास्तविक स्वरूप नहीं देख पाता है। दूसरी ओर आत्मा मुक्त है और सनातन है आत्मज्ञानी पुरुष को आत्मा सत्य और संसार असत्य दिखाई देता है।
अज्ञानी पुरुष चेष्टा करता है, अभ्यास करता है, साधना करता है, पर आत्मज्ञान इनसे प्राप्त नहीं किया जा सकता है।"
अब अष्टावक्र आत्मा और ब्रह्म की अभेदता का वर्णन करते हैं और कहते हैं कि यह आत्मा ही ब्रह्म है। व्यक्ति में उपस्थित चेतना का नाम आत्मा तथा समष्टिगत चेतना ही ब्रह्म है। यह ब्रह्म एक ही है जो भिन्न-भिन्न पदार्थो के कारण भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है। ये भाव और अभाव मन की कल्पना मात्र हैं। वही एक ब्रह्म है जो न भाव-स्वरूप है और न अभाव-स्वरूप है। यह सृष्टि ही परमात्मा है। स्व का ज्ञान ही धर्म है और पर का ज्ञान है विज्ञान जब मन वासना आसक्ति अहंकार से मुक्त होता है तो जो शेष रहता है वह ब्रह्म ही है। ऐसी स्थिति को प्राप्त हुआ ज्ञानी निष्काम है परम ज्ञान की स्थिति में कर्ता खो जाता है, इसलिए कर्म भी खो जाते हैं। फिर वह जो करता है यह कर्म नहीं है जो कहता है वह सत्य है सब कुछ स्वभाववश होता है। आत्मज्ञानी की कल्पनाओं के बारे में अष्टावक्र कहते हैं कि सृष्टि में एक ही अस्तित्व था और वह अविभाज्य था। जब मनुष्य जीवात्मा और परमात्मा में अज्ञानवश भेद करने लगा तब उसके मन में अनेक प्रकार की कल्पनाएँ, जैसे- यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ आने लगीं। जब ज्ञानी की सभी प्रांतियाँ मिट जाती हैं तो इस प्रकार की कल्पनाएँ भी क्षीण हो जाती हैं। यह उसी प्रकार होता है, जैसे दीपक जलने से अंधकार मिट जाता है।
अष्टावक्र आगे कहते हैं, "चित्त में संकल्प विकल्प निरंतर उठते रहते हैं। इन्हीं संकल्पों और विकल्पों के कारण संस्थर है। आत्मज्ञानी योगी का चित्त इन संकल्पों-विकल्पों से रहित होकर पूर्णत: शांत हो जाता है चित्त के सभी विशेष समाप्त हो जाते हैं। विक्षेप होने पर ही एकता की धारणा, ध्यान, समाधि आदि - की आवश्यकता होती है। अति बोध और मूढ़ता, सुख और दुःख की अनुभूति भी चित्त के विक्षेपों के कारण ही प्रतीत होती है। आत्मज्ञानी के समस्त विक्षेप शांत हो जाते हैं। वह आत्मा का सर्वत्र अनुभव करता हुआ नित्य आत्मानंद में हो मग्न रहता है और उसे अन्य चीजों का अनुभव नहीं होता है। उसका सारा आग्रह समाप्त हो जाता है उसका कोई चुनाव नहीं होता है, कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है, कोई शिकायत नहीं होती है, जो है सब स्वीकार है।"
