श्री अष्टावक्र गीता भाग 4
अष्टावक्र जीवन्मुक्त योगी के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि योगी के चित्त की संकल्प, विकल्प अवस्था से पूर्णतः निर्विकल्प हो जाने से उसके समस्त विशेष शांत हो जाते हैं।  इससे वह किए और अनकिए सभी प्रकार के द्वंडों से मुक्त हो जाता है। ऐसे मुक्त योगी के लिए धर्म, अर्थ, काम और विवेक का बंधन समाप्त हो जाता है। ज्ञानी अपनी आत्मा के स्वभाव के अनुसार इनका पालन करता है। जबकि अज्ञानी बाध्य होकर, अस्वाभाविक रूप से इनका पालन करते हैं। इसी क्रम में अष्टावक्र कहते हैं कि जीवन्मुक्त योगी के लिए कर्तव्य-कर्म कुछ भी नहीं है। दरअसल कर्मों का सांसारिक उद्देश्य होता है धन, सुख, मान-सम्मान, शांति ऐश्वर्य, पद-प्रतिष्ठा आदि की प्राप्ति धार्मिक व्यक्ति कम द्वारा स्वर्ग, मोक्ष, सद्गति प्राप्त करना चाहता है। इसलिए वह दान करता है, धर्मशाला बनवाता है। पर जो योगी जीवन्मुक्त हो गया, उसने तो वह सब पा लिया है जिसके लिए वह सब काम किया जाता है। वह तो ये कर्म करता है जो बिना फलाकांक्षा के स्वाभाविक रूप से होते हैं। ऐसे कर्मों के प्रति हृदय में कोई अनुराग नहीं होता है। आत्मज्ञानी के लिए महात्मा शब्द का इस्तेमाल करते हुए अष्टावक्र कहते हैं कि महात्मा वह है, जिसके चित्त की सभी वृत्तियाँ शांत हो गई हैं। ऐसे व्यक्ति के लिए न तो कहीं मोह है और न संसार का कोई महत्त्व वह ध्यान और मुक्ति से भी परे हो जाता है।
अष्टावक्र कहते हैं कि जगत् को स्वीकार करने वाला, उसी को सत्य समझने वाला व्यक्ति वासनाग्रस्त होता है। यदि अचानक मोक्ष की कामना जगने पर वह यह कहने लगे कि संसार मिथ्या है तो भी यह वासना का ही दूसरा रूप है। इसके विपरीत वासनारहित जीवन्मुक्त योगी संसार को देखता हुआ, उसमें निवास करना हुआ भी ऐसा व्यवहार करता है, जैसे यह कुछ नहीं देखा रहा है।
अष्टावक आगे कहते हैं कि चिंतन दो के बिना नहीं होता है। एक चिंतन करने वाला और दूसरा जिसका चिंतन किया जा रहा है, अर्थात् जीव और ब्रह्म के भिन्न-भिन्न होने पर चिंतन संभव है अज्ञानी अपने आपको परब्रह्म से भिन्न समझकर उसका चिंतन करता है। पूर्ण ज्ञान की स्थिति में जीव और ब्रह्म का भेद मिट जाता है। सर्वत्र एक हो ब्रह्म की अनुभूति होती है, फिर चितन को आवश्यकता नहीं बचती है। अष्टावक्र आगे कहते हैं कि हर प्राणी के भीतर स्थित चेतना ही आत्मा है, जिसके कारण मन, शरीर, इंद्रियाँ आदि सक्रिय होती है। यह चेतना शक्ति अर्थात् आत्मा हो ब्रह्म या ईश्वर है, पर सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं पड़ती है। हमारे मन में वासनाएँ हैं, जिनसे विभिन्न प्रकार की तरंगें उठती हैं और इनके कारण हम आत्मा के प्रत्यक्ष अनुभव से वंचित रहते हैं आत्मा के अनुभव के लिए योग का सहारा लिया जाता है, क्योंकि योग चित्त की तरंगों को शांत कर देता है। जिस व्यक्ति को आत्मज्ञान प्राप्त हो चुका हो उसका चित्त पहले ही शांत और विशेपरहित हो जाता है। उसे योग आदि उपाय करने की आवश्यकता नहीं होती है।
अष्टावक्र आगे कहते हैं कि ज्ञानी और अज्ञानी में बाहर कोई अंतर नहीं दिखाई देता है, पर अंदर बढ़ा अंतर होता है। अज्ञानी के सारे कार्य अपने अहंकार और वासना को तृप्ति के लिए होते हैं। वह शरीर-पोषण में हो लगा रहता है। ज्ञानी भी खाता-पोता है और अज्ञानियों की भाँति बाह्य कर्म करता है, पर भीतर जगा रहता है। ऐसा ज्ञानी पुरुष मुक्त होता है और समाधि, विशेष और बंधनों को भी नहीं देखता है। अष्टावक्र के अनुसार ज्ञानी पुरुष तृप्त होता है उसे न तो अहंकार होता है और न ही फलाकांक्षा वह कर्म करके भी कोई अपेक्षा नहीं रखता है और भाव और अभाव की चिंता से रहित रहता है। वह शेष संसार की तरह कर्म करता है, पर कर्म में लिप्त नहीं होता है। अष्टावक्र कहते हैं कि ज्ञानी पुरुष कर्तव्यादि अभिमान से दूर हो जाता है। और उसके सभी आग्रह और संकल्प समाप्त हो जाते हैं। वह न तो यह कहता है कि मैं यह करूंगा और न यह कहता है कि मैं यह नहीं करूंगा जो काम आ जाता है उसे करके सुखपूर्वक रहता है। उदाहरण के तौर पर यदि कोई व्यक्ति पानी में डूब रहा होगा तो उसे ज्ञानी भी बचाएगा और अज्ञानी भी, पर अज्ञानी अपना प्रचार करेगा और पुरस्कार की रक्षा करेगा, पर ज्ञानी अपना काम करके बिना अपना परिचय दिए विदा ले लेगा। अष्टावक्र कहते हैं कि ज्ञानी पुरुष वासनारहित, बंधनरहित और स्वच्छंद हो जाता है उसे किसी सहारे की आवश्यकता नहीं होती है।
वह अपने विवेक से काम करता है। वह संसार रूपी वायु से प्रेरित होकर एक सूखे पत्ते की तरह व्यवहार करता है। जैसे सूखा पत्ता उसी और उड़ जाता है जिधर हवा ले जाती है उसी प्रकार ज्ञानी भी प्रकृति द्वारा प्रेरित होकर कार्य करता है। अष्टावक्र कहते हैं, "मनुष्य का संसार बाहर नहीं है वरन उसके अंदर स्थित वासनाएँ कामनाएँ, इच्छाएँ, आकांक्षाएँ आदि उसका संसार हैं। इन्हीं से प्रेरित होकर वह संसार को देखता है और इस कारण उसे हर्ष-विषाद का अनुभव होता है। यदि उसके भीतर का संसार खो जाए तो वह शांत मन वाला हो जाता है और विदेह की भाँति संसार में शोभायमान होता है। "अज्ञानी पुरुष धन, पद, स्त्री, पुत्र आदि में खोया रहता है। वह इनमें आनंद ढूँढ़ता है। पर इन सुखों का कोई भरोसा नहीं होता है, क्योंकि इन्हें कोई भी छीन सकता है। जिस प्रकार व्यक्ति दूसरों से सुख पाना चाहता है वैसे ही दूसरे भी उससे सुख पाना चाहते हैं, पर देना कोई नहीं चाहता है और यहीं पर संघर्ष प्रारंभ होता है जो क्लेश का कारण बनता है।" अष्टावक कहते हैं, "ज्ञानी पुरुष इच्छा मात्र का त्याग कर देता है वह केवल अपनी आत्मा में रमण करता हुआ निर्मल चित्त वाला होकर शाश्वत सुख का उपभोग करता है। "मान और अपमान की भावना अहंकार के कारण होती है। छोटे व्यक्ति में अहंकार तीव्र होता है, इसलिए उसके सामने हमेशा मान-अपमान का प्रश्न बना रहता है। दूसरी ओर ज्ञानी शून्यचित्त वाला होता है और वह सब कर्म सहज भाव से करता है। वह न तो प्रशंसा का आकांक्षी होता है और न ही अपमान से प्रभावित होता है।"
अष्टावक्र कहते हैं, "आत्मज्ञानी भी अज्ञानी की भाँति सभी सांसारिक कर्म करता है, पर जहाँ एक और अज्ञानी अहंकारी होने के कारण सभी अच्छे-बुरे कर्मों का भार अपने ऊपर ले लेता है और फलाकांक्षी बन जाता है, वहीं दूसरी ओर ज्ञानी यह मानता कि यह कर्म शरीर द्वारा किया गया है और वह कर्म से लिप्त नहीं होता है।" अध्यक्त्र आगे कहते हैं कि ज्ञानी सामान्य जन की तरह काम करता है, खाना-पीना, व्यवहार करता है, पर वह होता असामान्य है। इसके विपरीत अज्ञानी असामान्य कार्य भी करता है, पर सामान्य ही बना रहता है। गिद्ध बहुत ऊँचा उड़ता है, पर उसकी निगाह मुरदे पर होती है। बगुला एक टाँग पर खड़ा रहता है, पर तपस्या के दौरान भी उसको नजर मछली पर हो रहती है। इसी प्रकार अज्ञानी के कर्म उच्च होते हुए भी उसकी दृष्टि क्षुद्र वासनाओं पर होती है। ज्ञानी और अज्ञानी के कहने और करने में अंतर होता है। ज्ञानी की पहचान ज्ञान से होती है, उसके कर्म से नहीं दूसरी ओर अज्ञानी कर्म से पहचाना जाता है। अज्ञानी के कर्म मूढतापूर्ण होते हैं, जबकि ज्ञानी मूढ़ नहीं होता है और संसार में रहकर सुखपूर्वक जीता है और शोभायमान होता है। अष्टावक्र कहते हैं कि अज्ञानी जब संसार के भोगों से तृप्त हो जाता है, तब संन्यास का जन्म होता है संन्यास संसार के अनुभवों का सार है जो व्यक्ति बिना अनुभवों की प्राप्ति के संन्यास लेता है वह कच्चा है, कभी भी डगमगा सकता है। संन्यास कार्य नहीं है, अनुभव है, उत्कृष्ट जीवन की ओर बढ़ा हुआ एक उद्यम है। ऐसा संन्यासी ही आत्मज्ञान का अधिकारी होता है और शांति को प्राप्त होता है।
इसी प्रकार बुद्धिजीवी अनेक प्रकार के विचारों में उलझा रहता है। वह संसार, कर्म, भोग, अध्यात्म, ईश्वर आदि के बारे में मनन करता है, शास्त्र पढ़ता है, सत्संग करता है, पर उसे शांति नहीं मिलती है। वह विचारों में और उलझता चला जाता है, क्योंकि सत्य तो एक ही है। असल्य अनेक है और सबके लिए अलग-अलग हैं जो इन विचारों से धककर शांति को प्राप्त होता है, उसी को आत्मज्ञान होता है। यह उस मूद को भी नहीं प्राप्त होता जिसने कभी विचार किया ही नहीं हो। आत्मज्ञानी एक आत्मा में स्थित हो जाने से न तो कल्पना करता है और न देखता-सुनता है। अष्टावक्र कहते हैं कि समाधि चित्त के विक्षेपों को शांत करने के लिए लगाई जाती है और ज्ञानप्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति लगाया करते हैं, पर आत्मज्ञानी के चित्त में विशेष तो शांत हो ही जाते हैं, उसे इन सब साधनों की जरूरत नहीं होती है और वह संसार को कल्पित देखता हुआ ब्रह्मवत् रहता है।
अज्ञानी जब अपने कमों को रोकता है तब वह कुछ पाने की इच्छा से हो ऐसा करता है। योजनाएँ उसके मन में बनती ही रहती हैं। सद्-असद्वृत्तियाँ मौजूद रहती हैं। अतः वह कर्म नहीं करता हुआ भी कर्म करता है, जबकि आत्मज्ञानी शरीर द्वारा किए जा रहे कर्मों में लिप्त नहीं होता है और कर्म करते हुए भी कम नहीं करता है, सिर्फ अपने आपको निमित्त मात्र समझता है।
अष्टावक्र आगे कहते हैं कि मुक्त पुरुष का चित्त हर प्रकार के द्वंद्रों से रहित हो जाता है वह उद्गरहित, संतोषरहित, कर्तव्यरहित, स्पंदरहित, आशारहित, संदेहरहित हो जाता है। वह अहंकार या चित्त की वृत्तियों के आवेश में आकर कोई काम नहीं करता है। उसके सारे कार्य निश्चित, विवेकपूर्ण एवं स्वभावानुकूल होते हैं। ऐसा ज्ञानी संसार में शोभायमान होता है। अज्ञानी किसी निमित्त को ध्यान में रखकर ही ध्यान या चेष्टा करता है, पर ज्ञानी पुरुष को फलप्राप्ति की आकांक्षा नहीं होती है वह यदि ध्यान भी करता है और कर्म भी, तो बिना किसी हेतु के करता है। अष्टावक्र कहते हैं कि मंदबुद्धि व्यक्ति सिर्फ शरीर-पोषण में लगा रहता है। इंद्रिय-भोगों के अलावा किसी और विषय में रुचि नहीं लेता है। यदि उसे यथार्थतत्व का बोध कराया जाए तो भी उसकी मूढ़ता में कोई अंतर नहीं पड़ता है। तत्त्वबोध का अति सूक्ष्म विवेचन स्थूल बुद्धि की समझ से परे है। उसका चित्त अहंकार, वासना, तृष्णा आदि से परिपूर्ण होता है और वह तत्त्वबोध को भी विकृत रूप में देखता है। यह ऐसे ही होता है, जैसे जहर में अमृत मिलाने से अमृत भी जहर हो जाता है। इसके विपरीत कई बार जानी मूढवत दिखाई पड़ता है, पर वह स्वचंतना को पहचानकर समाधि को उपलब्ध हो जाता है। वह मुडवत् व्यवहार इसलिए भी करता है कि ज्ञान प्रदर्शन से अहंकार बढ़ता है और उसके कार्य में बाधा उत्पन्न होती है।
अष्टावक्र कहते हैं कि अज्ञानी चित की एकाग्रता अथवा निरोध के लिए अनेक प्रकार के प्रयास करता है, पर देर-सबेर विषयों के पीछे फिर भागने लगता है। दूसरी ओर जानी के चित्त की सभी वृत्तियाँ शांत हो जाती हैं। उसे कोई अभ्यास नहीं करना पड़ता है। वह सोए हुए व्यक्ति की भाँति अपने स्वभाव में स्थित रहता है। उसके लिए चेष्टापूर्वक करने योग्य कुछ भी नहीं रहता है।
अष्टावक्र आत्मज्ञान प्राप्ति का एक महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रकट करते हुए कहते हैं कि चित्त की अनेक वृत्तियाँ हैं और एक-एक को छोड़ने से कोई सफलता नहीं मलती है। ये सभी वृत्तियाँ करने के बावजूद नए-नए रूपों में प्रकट होती रहती हैं। इसलिए अज्ञानी पुरुष चाहे कितनी भी साधना क्यों न करे, निवृत्ति को प्राप्त नहीं होता है। दूसरी ओर ज्ञानी आत्मतत्व को निश्चयपूर्वक जानकर निवृत्त हो जाता है। उसे अपनी वृत्तियाँ शांत करने के लिए कोई साधना या प्रयत्न नहीं करना पड़ता है।
अष्टावक्र कहते हैं कि संसार में अनेक लोग आत्मा को जानने के लिए अनेक प्रकार के अभ्यास, जैसे- योग, साधना, संन्यास करते हैं। पर ये लोग असफल रहते हैं, क्योंकि इन अभ्यासों से अहंकार बढ़ता है और चित्त को वृत्तियाँ शांत होने के बजाय और विद्रोह करती हैं संसार का आकर्षण ऐसा है कि वह मन को बाहर की ओर हो ले जाता है। अभ्यास से वृत्तियाँ और दृढ़ हो जाती है, जिससे अभ्यास भी बंधन बन जाता है और इससे व्यक्ति को शुद्ध, बुद्ध प्रिय, पूर्ण, प्रपंचरहित दुःखारहित आत्मा को जानने में व्यवधान होता है।
अष्टावक्र कहते हैं कि आत्मा हमारा स्वभाव है, उसे जानना मात्र है। आत्मा के ज्ञान से स्वतः ही ब्रह्म का ज्ञान हो जाता है, उसकी सभी भ्रांतियाँ मिट जाती हैं और बंधन टूट जाते हैं। यही मुक्ति है, पर दूसरी ओर अज्ञानी पुरुष अभ्यास करके इन बंधनों को काटना चाहते हैं पर ये बंधन भ्रम मात्र हैं. इसलिए अभ्यास से नहीं करते हैं। दरअसल मोक्ष है रथ के सागर में दुबकी लगाना अभ्यास तैरने के लिए करना पड़ता है, दूबने के लिए नहीं। ज्ञानी पुरुष के लिए कोई भी अभ्यास आवश्यक नहीं रह जाता है। अष्टावक्र कहते हैं कि एक सिंह का बच्चा भेड़ों के समूह में पलकर अपने को भेड़ हो समझने लगता है जब वह अपना चेहरा देख लेता है और खून के स्वाद को चत्र लेता है तो उसकी भ्रांति मिट जाती है और सिंहत्व जाग जाता है उसे कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। इसी प्रकार ज्ञानी को अपना स्वरूप मात्र जान लेने से समस्त भ्रांतियाँ मिट जाती है। वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। जीव ब्रह्म ही होता है, उसे बनने की आवश्यकता नहीं होती है। यदि सिंह भेड़ ही होता तो लाख अभ्यास करने से भी वह सिंह नहीं बन पाता। 
यह सब माया भ्रमपूर्ण है, दुराग्रहपूर्ण है हमारे झूठे आग्रहों से ही संसार में दुःख-सुख, हर्ष-विषाद का अनुभव होता है अज्ञानियों द्वारा रचे गए इस दुराग्रहपूर्ण संसार का मूलोच्छेद ज्ञानी करते हैं। वे अनर्थ के मूल से संबंधविच्छेद करके आत्मा संबंध जोड़ लेते हैं, जो सुख और शांति का कारण है।
अष्टावक्र आगे कहते हैं कि अज्ञानी शांत होने के लिए प्रयत्न करता है। शांत होने की इच्छा करने से भी मन में अशांति फैलती है। शांति तभी मिलती है जब चित्त विशेपरहित हो जाए और तभी आत्मज्ञान प्राप्त होता है। आत्मज्ञानी हर प्रकार के द्वंद्व से रहित होकर समभाव में स्थित हो जाता है और आत्मा का अनुभव करता रहता है। अष्टावक्र कहते हैं कि अज्ञानी पुरुष भौतिक पदार्थ को देखता है। उसकी इंद्रियाँ सिर्फ स्थूल को ही देख पाती हैं और उन्हीं के पीछे भागता रहता है। दूसरी ओर जानी पुरुष दृश्य पदार्थों के बजाय अविनाशी आत्मा को देखते हैं, जिस सारा जगत् दृश्यमान जाता है। अज्ञानी हठपूर्वक चित्त का निरोध करते हैं, पर इनसे मन और मजबूत होता है तथा अहंकार और दृढ़ हो जाता है। इससे अज्ञानी को शांति कतई नहीं मिल सकती। दूसरी ओर ज्ञानी आत्मा को जान लेता है और उसी में रमण करता है। उसके चित्त का निरोध अपने आप ही हो जाता है। अष्टावक्र आगे कहते हैं कि कुछ लोग कहते हैं कि परमात्मा है। ये लोग आस्तिक कहलाते हैं। दूसरे लोग कहते हैं कि परमात्मा नहीं है। ये लोग नास्तिक कहलाते हैं।
दोनों ही अज्ञानी हैं, क्योंकि परमात्मा इतना विराट् है कि यह क्षुद्र बुद्धि उसे न तो जान सकती है और न वाणी वर्णन कर सकती है। इसलिए ज्ञानी तटस्थ रहता है और शांति का अनुभव करता है तर्क से विवाद पैदा होता है और हल नहीं निकलता है। अष्टावक्र कहते हैं कि कुबुद्धि पुरुष चाहे कितनी भी भावना कर लें कि आत्मा है, परमात्मा है, संसार मिथ्या है, पर इनसे उन्हें सुख नहीं मिलेगा, क्योंकि उनका संसार के प्रति मोह बना रहता है। इसलिए वे आत्मसुख से वचित रहते हैं। अष्टावक्र कहते हैं कि मन सहारा चाहता है। जब उसे परमात्मा का सहारा मिल जाता है तो वह तृप्त हो जाता है बुद्धि भी आलंबन चाहती है। इसीलिए मोक्ष चाहने वाला व्यक्ति पूजा-पाठ, यज्ञ, पंडित, शास्त्र, मंदिर, परमात्मा आदि का सहारा लेकर चलता है। पर जब तक सहारा है तब तक मुक्ति संभव नहीं है, क्योंकि सहारा भी बंधन है उद्देश्यप्राप्ति के बाद सभी सहारे सभी आलंबन छोड़ देने पड़ते हैं, तभी व्यक्ति निष्काम और निरालंब होता है बुद्धि और मन की यह अवस्था ही मुक्ति है। अष्टावक्र कहते हैं कि आम सांसारिक व्यक्ति विषयों को भोगकर क्षणिक तृप्ति का अनुभव करता है। वह सुख-दुःख, हर्ष-विषाद को भाग्यवश समझकर भोगता रहता है। पर जब मनुष्य में आत्मज्ञान की वासना तीव्र हो जाती है तब वह इन विषयों को बाप के समान समझने लगता है और इनसे बचने के लिए किसी पहाड़ की गुफा में एकांत ढूंढ़ता है। वह समझता है कि संसार से भाग जाने से या एकांत में रहने से चित्त का निरोध स्वयं हो जाएगा और आत्मज्ञान की प्राप्ति भी हो जाएगी, पर यह उसका भ्रम मात्र है। संसार छोड़ देने से या इंद्रियों के निरोध से वासनाएँ समाप्त नहीं होंगी। दूसरी ओर वासनारहित व्यक्ति सिंह के समान होता है उसे देखकर विषय रूपी हाथी स्वयं भाग जाते हैं या इतने असमर्थ हो जाते हैं कि एक चाटुकार सेवक की भाति उसकी सेवा करते हैं। अज्ञानी वासनाग्रस्त होकर विषयों को भोगते हैं, जबकि ज्ञानी अपने विवेक के अनुसार उनका उपभोग करते हैं। अष्टावक्र कहते हैं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह पाँच | नियम हैं, योगी जिनका आग्रहपूर्वक पालन करता है, पर ज्ञानी व्यक्ति का यह स्वभाव ही हो जाता है। ज्ञानी व्यक्ति बिना किसी आग्रह के सुनना स्पर्श करना, सूचना, खाना जैसे कार्य करता हुआ सुखपूर्वक रहता है।  अष्टावक्र कहते हैं कि आचार-अनाचार, उदासीनता कर्मठता अज्ञानियों के लिए होती है। आत्मज्ञान प्राप्ति के बाद व्यक्ति स्वस्थ चित्त वाला और शुद्ध बुद्धि वाला हो जाता है उससे जो कर्म होंगे वे पूर्ण जागरूकता एवं विवेक से होंगे। उनमें स्वार्थ-वासना एवं अहंकार आदि न होने से जो भी कार्य होगा वह स्वस्थ ही होगा। विकार आ ही नहीं सकता है।
अष्टावक्र ज्ञानी व्यक्ति को बालक समान बताते हुए कहते हैं कि दोनों अपने स्वभाव में जीते हैं। बालक मन के स्वभाव में जीता है और सारी इच्छाएँ पूरी करना चाहता है शुभ-अशुभ का भेद उसमें नहीं होता है। उसकी बुद्धि का विकास नहीं होने के कारण बुद्धि भेद नहीं कर पाती है। दूसरी ओर ज्ञानी मन से नहीं, आत्मा के स्वभाव में जीता है। मन और बुद्धि से परे होकर वह विवेक से कार्य करता है और शुभ-अशुभ का भेद न करते हुए जो आवश्यक होता है बालक के समान कर लेता है।
अष्टावक्र कहते हैं कि तृष्णा, अहंकार, कामना आदि मनुष्य के लिए दरअसल बंधन हैं और उसे विषयों का गुलाम बना देते हैं। आत्मज्ञानी उनसे पूर्ण स्वतंत्र हो जाता है और सुखी रहता है। इस कारण वह परम पद प्राप्त करता है। मनुष्य अहंकार के कारण स्वयं को परमात्मा से भिन्न मानने लगता है। वह अपने आपको कर्ता और भोक्ता मानने लगता है। जब वह आत्मरूप में स्थित हो जाता है तब न कर्ता रहता है और न भोक्ता उससे न तो पाप होता है और न पुण्य आत्मज्ञान से उसकी सारी चित्तवृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं। अष्टावक्र कहते हैं कि अज्ञानी के मन में स्पृहा, वासना रहती है। यदि वह यह कहे कि मैंने आधा घंटा ध्यान कर लिया, दस माला गायत्री की जपली, किसी आश्रम में एक घंटा बैठ आया और शांति मिल गई तो यह शांति पाखंड है। दूसरी ओर ज्ञानी स्पृहा मुक्त हो जाता है उसे स्वाभाविक शाति मिल जाती है। इसके बाद वह उछृंखलता भी दिखाता हो तो वह शोभा ही पाता है, क्योंकि उसमें कोई विकार नहीं होता है।
जब ज्ञानी की स्पृहा वासना शांत हो जाती हैं तो उसके बाद वह बड़े-बड़े भोग भी भोगता है, पर उनमें वह लिप्त नहीं होता है, क्योंकि वह इन्हें खेल की तरह साक्षी भाव से भोगता है वह चाहे तो पहाड़ की कंदराओं में भी रह सकता है, क्योंकि यहाँ भी वह समभाव से ही रहता है बंधनमुक्त ज्ञानी आत्मा में रमण करने वाला स्वच्छंदाचारी होता है।
अष्टावक्र कहते हैं कि अज्ञानी में स्पृहा होती है, वासना होती है, जिनको पूर्ति के लिए वह पंडितों के पास जाता है धन, यश, पुत्रादि की प्राप्ति के लिए देवताओं की पूजा-अर्चना करता है पाप धोने के लिए तीर्थों की यात्रा करता है। स्त्री देखकर काम मोहित हो जाता है और राजा की चाटुकारिता करता है। दूसरी ओर ज्ञानी पुरुष को उपरोक्त किसी चीज से लगाव नहीं होता है। वह किसी से कुछ पाने की इच्छा नहीं रखता है, सिर्फ अपना कर्तव्य करता है। अज्ञानी अहंकारी होता है जब उसकी इच्छा पूरी नहीं होती है तो उसे क्रोध आता है। यदि उसकी पत्नी, पुत्र, दौहित्र नौकर-चाकर उसका सम्मान न करें तो उसे कष्ट होता है। दूसरी ओर ज्ञानी अहंकाररहित हो जाता है और बांधव-जनों द्वारा धिक्कारे जाने पर भी विकारग्रस्त नहीं होता है।
अष्टावक्र कहते हैं कि ज्ञानी पुरुष अंदर से संतुष्ट होता है। उसकी न तो कोई चाह होती है और वासना उसके पास पाने के लिए कुछ बचा नहीं होता है, पर वह अपने चेहरे पर संतुष्टि असंतुष्टि का भाव नहीं आने देता है। उसके बाहरी कमों को देखकर उसकी आंतरिक स्थिति का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। उसको भीतरी अवस्था का ज्ञान किसी वैसे ही ज्ञानी को हो सकता है।
अष्टावक्र कहते हैं कि यह कर्तव्य ही संसार है जो संसार में रहता है उसे करने योग्य कार्य अर्थात् कर्तव्य करने ही पढ़ते हैं। ज्ञानी पुरुष भी कर्तव्य करते हैं, पर उनमें वैसी कर्तव्यता नहीं होती है जैसी संसारी व्यक्ति में होती है। संसारी अच्छा-बुरा, निंदा- प्रशंसा आदि को ध्यान में रखकर कर्तव्य करता है उसमें संकल्प भी होता है और अहंकार भी। दूसरी ओर ज्ञानी अहंकाररहित और वासनारहित होने के कारण मुक्त होता है वह शून्याकार, निराकार, निर्दोष और दुःखरहित होता है। वह संसार की कर्तव्य की भाति नहीं वरन् एक अभिनेता की भाँति देखता है। अष्टावक्र कहते हैं कि कई बार अज्ञानी किसी से तत्वबोध के बारे में सुनकर सांसारिक कार्य त्याग देते हैं, पर इन कर्मों के छोड़ देने से भी उसके मन के विक्षोभ, संकल्प विकल्प आदि नहीं समाप्त होते हैं, क्योंकि वह कुछ पाने की लालसा से कर्म छोड़ता है। वह अशांत बना रहता है। दूसरी और ज्ञानी पुरुष सभी प्रकार के सांसारिक कर्म करता है, पर चूंकि उसके चित्त के सभी विशेष शांत हो जाते हैं, इसलिए कभी अशांत नहीं होता है।
अष्टावक्र कहते हैं कि मनुष्य का बाह्य व्यवहार उसके चित्त में चल रही हलचल का प्रक्षेपण है। अशांत मन वाला व्यक्ति अपनी हर गतिविधि बैठने,
आने-जाने, बोलने, खाने-पीने में अशांति का ही अनुभव करता है। कभी वह बैठे-बैठे हाथ-पैर हिलाता है तो खाते-खाते कुछ सोचने लगता है। कभी वह पैर पटककर चल देता है। दूसरी ओर ज्ञानी पुरुष का चित्त शांत होता है। वह अपनी हर गतिविधि बैठने, खाने, आने जाने में सुख का अनुभव करता है। अष्टावक कहते हैं कि ज्ञानी भी अज्ञानियों की तरह हर प्रकार के सांसारिक कर्म करते हैं, पर ज्ञानी इन कर्मों से अलिप्त होते हैं। इसलिए उनका व्यवहार आम मनुष्य से भिन्न होता है जैसे महासरोवर शांत दिखाई देता है, वैसे ही ज्ञानी भी क्लेशरहित होता है और संसार में शोभता है। अष्टावक्र प्रवृत्ति और निवृत्ति के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि अज्ञानी भी संसार छोड़कर जंगल में चले जाते हैं। वे भी हीरे-जवाहरात छोड़कर संन्यासी हो जाते हैं, पर उनके मन में कुछ पाने की कामना होती है, आसक्ति होती है, इसलिए उनकी निवृत्ति भी एक किस्म की प्रवृत्ति ही है। दूसरी ओर अहंकार और आसक्तिरहित ज्ञानी पुरुष संसार में प्रवृत्त तो रहता है, पर उसकी प्रवृत्ति एवं निवृत्ति की कसौटी भीतरी वासना है। वैराग्य की व्याख्या करते हुए अष्टावक्र कहते हैं कि परिग्रह अर्थात् धन संपत्ति, घर-बार, राज्य महल आदि त्यागने से वैराग्य नहीं होता है, क्योंकि कुछ पाने की इच्छा से किया गया त्याग वैराग्य नहीं होता है। दूसरी ओर ज्ञानी तो आत्मा में रमण करता है। यह इस संसार संपत्ति आदि को शुद्र नाशवान और क्षणिक मानता है। वह परिग्रह को पाप नहीं समझता और यथास्थिति में सुखपूर्वक रहता है। उसके लिए राग और वैराग्य दोनों ही अप्रासंगिक हैं।
