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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

श्री अष्टावक्र गीता भाग 3

अष्टावक्र और जनक आध्यात्मिक संवाद। श्री अष्टावक्र गीता भाग 3

 अष्टावक्र गीता: जनक और अष्टावक्र संवाद



इस संसार में प्रचलित आश्रम व्यवस्था (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास), वर्ण व्यवस्था (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूह), विभिन्न कर्मों-अप, तप, पूजा-पाठ आदि से परे हो गया हूँ। मुझे यह आत्मज्ञानरूपी विकल्प मिल गया है। मैं सभी से मुक्त हुआ आत्मरूप में स्थित है।
जीवन कर्म है मृत्यु कर्म का अभाव है। कर्म का आरंभ जन्म के साथ प्रारंभ हो जाता है और मृत्यु तक चलता है। अहंकार से किए गए कर्म फलाकांक्षा के लिए किए जाते हैं। शुभ कर्मों का फल शुभ होता है और अशुभ कर्मों का फल अशुभ होता है पर ये सभी बंधन का कारण होते हैं। इसी प्रकार कर्मों का त्याग भी बंधन है, क्योंकि यह भी किसी फल की आकांक्षा से किया जाता है। इन दोनों के पीछे मैं की भावना रहती है। अब राजा जनक अहंकाररहित होकर कर्म और अकर्म तथा उनके त्याग से मुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हैं। राजा जनक कहते हैं, "ब्रह्म निराकार है उसका चिंतन हो ही नहीं सकता है। फिर भी लोग उसका चिंतन करते हैं और उसमें भी चिंता का समावेश होता है। अब मैं पिता के भाव को त्यागकर भावनामुक्त होकर अपने आत्मस्वरूप में स्थित हूँ।"
आत्मज्ञान प्राप्त करने के अनेक रास्ते हैं, जैसे-जप, तप, योग, भक्ति आदि राजा जनक कहते हैं कि जो व्यक्ति इन साधनों का इस्तेमाल करके आत्मज्ञान प्राप्त करता है वह कृतकृत्य है और जो व्यक्ति स्वभाव से हो आत्मभाव वाला है वह तो कृतकृत्य है ही।
आत्मज्ञानप्राप्ति के पश्चात् अपने अनुभवों का बखान करते हुए राजा जनक कहते हैं कि यह संसार, कर्म, त्याग, ग्रहण आदि कुछ भी नहीं है। यह भाव उन लोगों में भी आसानी से नहीं आ पाता है जो कोपीन (संन्यारी के वस्त्र) धारण कर लेते हैं। मेरे चित्त की चंचलता समाप्त हो गई है और अब मैं त्याग और ग्रहण दोनों से परे होकर सुख प्राप्त कर रहा हूँ। यह शरीर तमाम व्याधियों का पर है। कभी शरीर में कष्ट होता है। कभी याणी दुखी कर देती है। दूसरे की कही या कई बार अपनी कही बात बहुत दुखी कर देती है। कभी मन दुखी कर देता है चिताएँ, अपमान, महत्त्वाकांक्षाएँ, हीन भावनाएँ आदि मन के दुःख हैं। राजा जनक अब हर प्रकार के दुःखों से मुक्त होकर आत्मा के आनंद की अनुभूति कर रहे हैं। मनुष्य के कर्म दो प्रकार के होते हैं। कुछ तो स्वाभाविक होते हैं जिन्हें करने के लिए श्रम नहीं करना पड़ता है, जैसे साँस लेना, भोजन को पचाना, हृदय का धड़कना। कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिन्हें मनुष्य कर्तव्य समझकर करता है या कुछ पाने की इच्छा से करता है। इन दोनों प्रकार के कर्मों में से कोई भी आत्मकृत नहीं है।" मैं अहंकासहित होकर स्वाभाविक रूप से जो काम सामने आ जाता है उसे कर देता हूँ और सुख पाता हूँ।"कर्म करना संसार के लिए आवश्यक है। कर्म छोड़ना ईश्वरीय कार्य में बाधा पहुंचाना है। अतः कर्म ईश्वरीय कार्य समझकर करना चाहिए और कर्तापन से मुक्त हो जाना चाहिए। योगी की साधना शरीर से प्रारंभ होती है जो साधना की प्रथम सोढ़ी है। वह एक-एक सौदी पार करके आगे बढ़ता है। अतः वह शरीर में आसक्ति छोड़ता है। इस आसक्ति के कारण वह कर्म और निष्कर्म दोनों में संयुक्त भाव वाला होता है उसका कर्म और निष्कर्म दोनों बंधनस्वरूप होता है। इसके विपरीत राजा जनक अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं कि मैं इस शरीर के संयोग और वियोग दोनों से अलग एक चैतन्य आत्मा में स्थित हूँ अब कर्म और निष्कर्म मेरे लिए बंधन नहीं हैं। इनमें मेरा न कोई आग्रह है और न ही कोई अपेक्षा इसलिए मुझे सुख की अनुभूति हो रही है। राजा जनक आगे कहते हैं कि आत्मज्ञान की प्राप्ति के बाद मैं अपने स्वभाव में जी रहा हूँ। लाभ-हानि, अर्थ-अनर्थ से मेरा कोई सरोकार नहीं है। मेरो सोने जागने ठहरने जैसी गतिविधियाँ स्वाभाविक रूप से हो रही हैं। ये न तो दिखावे के लिए हैं और न ही लाभ-हानि की अभिलाषा से इसलिए मुझे सुख की अनुभूति हो रही है। स्वाभाविक रूप से काम करने के कारण अब मुझे सोने में भी हानि नहीं है और यल करने में भी कोई सिद्धि नहीं है। मैं इतना ही कर रहा हूँ जितना आवश्यक है। आम संसारी कर्म करके भी दुखी, पौड़ित एवं तनावग्रस्त रहता हैं, जबकि मुझे परम शांति मिल रही है।
आम संसारी व्यक्ति संसार में दुःख देखता है उसे सुख कम दिखाई देता है। वह इनके लिए समाज और भगवान् को दोष देता है। दुःखों से छुटकारा और सुख प्राप्ति के लिए वह अनेक शुभ-अशुभ कर्म करता है। दूसरी ओर जनक अपना अनुभव बताते हुए कह रहे हैं कि मैंने अनेक परिस्थितियों में देख लिया है कि जैसे दुःख अनित्य है वैसे ही सुख भी अनित्य हैं। यह सृष्टि का नियम है। अब मैं सुख और दुःख दोनों से दूर होकर सुखपूर्वक जो रहा हूँ।
राजा जनक ज्ञानी पुरुष के लक्षणों का वर्णन करते हुए आगे कहते हैं कि ज्ञानी शून्य चित्त वाला होता है। उसके चित्त से समस्त कामना, वासना और संस्कारजन्य तरंगे शांत हो जाती हैं और चित्त की चंचलता नष्ट हो जाती है। ऐसा मनुष्य हमेशा जागता रहता है। जिस प्रकार सोते समय मनुष्य के शरीर का छोटा हिस्सा ही सोता है और बड़ा हिस्सा श्वसन तंत्र, रक्त प्रवाह, स्नायु तंत्र आदि चलते रहते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष यदि संसारी विषयों में लिप्त होता भी है तो वह वासना एवं आसक्ति के कारण नहीं वरन् प्रमादवश ऐसा करता है। प्रारब्ध-कर्म, जिनके लिए यह शरीर मिला है, उन्हें आत्मज्ञान प्राप्ति के बाद भी करना पड़ता है। ईश्वरीय विधान अनुसार भोगे गए कर्म आत्मज्ञानी की मुक्ति के मार्ग में बाधक नहीं है। ज्ञानी पुरुष को शाश्वत सुख की प्राप्ति हो जाती है। इसके बाद उसकी सारी इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं। धन, मित्र, विषय- भोग, शास्त्र, ज्ञान आदि मनुष्य की वासना पूर्ति के साधन मात्र हैं। जब तक मनुष्य के अंदर बासना है तभी तक ये मूल्यवान हैं। आत्मानंद की प्राप्ति के पश्चात् इनकी कोई उपयोगिता नहीं है।
राजा जनक कहते हैं कि शरीर स्थित देह इंद्रियों आदि का साक्षी पुरुष यह आत्मा है। जिसने इस आत्मा को जान लिया उसने परमात्मा को जान लिया, क्योंकि परमात्मा आत्माओं में श्रेष्ठ है। इसके ऐश्वर्य के कारण इसे ईश्वर कहा जाता है। साक्षी पुरुष आत्मा, परमात्मा और ईश्वर में अभेद संबंध है। इस संबंध को जानने वाले पुरुष को आशाओं से मुक्ति और बंधनों से मुक्ति की भी चिंता नहीं रहती है। आत्मज्ञानी पुरुष का वर्णन करते हुए राजा जनक कहते हैं कि आत्मज्ञानी पुरुष स्वच्छंदाचारी होता है उसे सद्-असद्, मिथ्या प्रांति, नित्य-अनित्य आदि का ज्ञान हो जाता है। वह सभी बंधनों से मुक्त होकर स्वविवेक से काम करता है। संकल्प विकल्प से मुक्त ऐसे पुरुष को सामान्य गतिविधियाँ, खाना-पीना, कपड़े पहनना, बात करना आदि सामान्य व्यक्तियों की हो भाँति चलती रहती हैं। यह व्यावहारिकता और शिष्टाचार के नियम भी निभाता है। वह अहंकाररहित होता है और बाहरी अनुशासन के बजाय स्व-अनुशासन से जीता है ऐसे पुरुष की भीतरी दशाओं को वैसा ही पुरुष जान सकता है। अब अष्टावक्र को पूर्ण विश्वास हो चुका था कि राजा जनक को जो आत्मबोध हुआ है वह वास्तविक है और वह मात्र भ्रम नहीं है। अब वे आत्मज्ञान की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि सत् बुद्धि वाले पुरुष का अंत:करण शुद्ध होता है और वह थोड़े से उपदेश से हो कृतार्थ हो जाता है। दूसरी ओर असत् बुद्धि वाले पुरुष के चित्त में वासना, राग-द्वेष आकार आदि भरा होता है ऐसा व्यक्ति आजीवन ज्ञान-अर्जन हेतु जिज्ञासा करता रहे तब भी उसकी ज्ञान की लालसा पूरी नहीं होती और मोहग्रस्त बना रहता है। ऐसा व्यक्ति शास्त्रों का अध्ययन तो कर लेता है, पर तर्क-वितर्क के जाल में फैस जाता है।
तत्त्वज्ञान का अधिकारी कौन हो सकता है यह बताने के बाद अष्टावक्र कहते हैं कि मनुष्य को जब तक विषयों में रस आता है तब तक वह सांसारिक बना रहता है। मनुष्य का मन बंधन और मुक्ति का कारण है। जब यह विषयों से विरस हो जाता है तब मुक्ति हो जाती है। संसार की उपस्थिति बंधन नहीं है। संस्तर में रहना, खाना-पीना व अन्य कर्म करना बंधन का कारण बिलकुल नहीं है। अष्टावक्र जनक को स्पष्ट कह देते है कि अब तुम मोक्ष को प्राप्त हो चुके हो, अब तुम चाहे जैसे रहो, कोई अंतर नहीं पड़ता है।
आम आदमी भोग को लालसा में अपनी बुद्धि वाणी और हाथ-पैरों का भरपूर इस्तेमाल करता है। इस तरह वह अत्यंत बातूनी, तेज और मेहनतकश हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को मुक्ति का उपदेश नुकसान पहुंचाता है, क्योंकि यह मनुष्य को शांत और निष्क्रिय बनाता है। यह उपदेश उन्हीं के लिए उचित है, जो सांसारिक गतिविधियों से विरस हो चुके हैं। अष्टावक्र जनक से आगे कहते हैं कि तुम्हारी इन विषयों में आसक्ति नहीं थी और शुद्ध अंतःकरण वाले थे, इसलिए तुम्हें शीघ्र ही आत्मबोध हो गया। अब तुम शरीर नहीं हो अब तुम न कता हो और न ही भोक्ता हो तुम चैतन्यस्वरूप हो, जो नित्य है, साक्षी है, निरपेक्ष है। इसलिए सुखपूर्वक भ्रमण करो शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार आदि प्रकृतिजन्य हैं, जिनके भिन्न-भिन्न धर्म है।
आत्मा चैतन्यस्वरूप है, जिसके गुण-धर्म इनसे भिन्न हैं। अष्टावक्र: जनक से कहते हैं कि तुम आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके हो इसलिए आत्मा ही तुम्हारा कर्म और स्वभाव है जो निर्विकल्प, निर्विकार है तुम अब इसी के अनुसार आचरण करते हुए सुखपूर्वक रहो।
इस संसार में अनेकता दिखाई देती है। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े-मकोड़े, पेड़-पौधे आदि में भिन्नता दिखाई देती है। यह सब मन का ही प्रक्षेपण है और मन अपनी सीमित दृष्टि के कारण भिन्नता देखता है। जो व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है वह जान जाता है कि संपूर्ण सृष्टि उसी एक आत्मा के विभिन्न स्वरूप है। जिस प्रकार एक दूध से अनेक मिठाइयों व पदार्थ बनते हैं उसी प्रकार आत्मा ही समस्त सृष्टि का कारण है। इस एक की अनुभूति होना ही परमज्ञान है। अष्टावक्र जनक से कहते हैं कि अब तुमने जान लिया है कि सब भूत पदार्थों में आत्मा है तथा सब भूत आत्मा ही हैं। दोनों अभिन्न हैं। इसलिए अब तुम्हारे अंदर अहंकार और ममता जन्म नहीं ले सकती अब तुम सुखी हो।
अष्टावक्र आगे कहते हैं कि जिस प्रकार समुद्र में तरंगें उठती हैं पर ये तरंगे समुद्र से अलग नहीं हैं। इसी प्रकार तुम अर्थात् आत्मा उस महासमुद्र के समान हो, जिससे यह संसार तरंगों की भाँति स्फुरित होता है तरंगें जिस प्रकार अनित्य हैं, उठती हैं और फिर गिरकर नष्ट हो जाती हैं, पर इनसे समुद्र को किसी प्रकार का हानि-लाभ नहीं होता है, उसी प्रकार संसार अनित्य है। वह बनता है, बिगड़ता है, इसमें निर्माण होता है और फिर विनाश भी होता है, पर आत्मा को कोई हानि या लाभ नहीं होता है। इसलिए हे जनक, तुम चूँकि आत्मा हो, अतः संतापरहित हो जाओ।
अष्टावक्र कहते हैं कि हे तात, तुमने जो ज्ञान प्राप्त किया है उस पर श्रद्धा करो जिस व्यक्ति ने प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया और सिर्फ पुस्तकों से जाना है या किसी से सुना है उसे अश्रद्धा हो सकती है, क्योंकि ज्ञान बुद्धि की पकड़ से परे है और स्वानुभूति का ही विषय है। तुम तो ज्ञानस्वरूप, भगवानुस्वरूप आत्मा हो, प्रकृति से परे हो, तुम्हारे लिए मोह का कोई कारण नहीं है। जिस प्रकार स्वर्ण से अनेक आभूषण बनते हैं और बिगड़ते हैं, मिट्टी से अनेक बर्तन बनते हैं और टूट जाते हैं, पर मूल तस्य सदा विद्यमान रहता है, उसी प्रकार गुणों से लिप्त यह शरीर रहता है, आता है और जाता है; पर आत्मा तो मूल तत्त्व है, वह न कहीं आती है और न हो जाती है। है जनक, तुम्हें इसके लिए सोक नहीं करना चाहिए। यह देह तो भगवान् के अवतारों की भी नहीं बची अनेक लोगों ने अमर होने की कोशिश की, पर अंततः उन्हें भी संसार से जाना पड़ा। पर हे जनक, तुम तो चैतन्यरूप आत्मा हो। तुम न तो नष्ट होगे और न ही तुमसे कोई वृद्धि होगी तुम तो जैसे हो वैसे ही रहोगे।
जिस प्रकार आकाश में अनेक वायुविक्षेप उठते हैं और शांत हो जाते हैं, पर आकाश सदा अस्पर्शित रहता है।
यह सारी सृष्टि एक है, अखंड है। यह सृष्टि एक केंद्र या धुरी के सहारे चल रही है। जिस प्रकार कुएँ अनेक हैं, पर उन सबका जलस्रोत एक ही है। पदार्थ अनेक है, पर उन सबका मूल तत्त्व ऊर्जा एक ही है उसी प्रकार शरीरस्थ आत्मा ही विश्वात्मा है, जिससे सृष्टि-चक्र चलता है। अष्टावक्र कहते हैं कि हे जनक, तुम चैतन्यस्वरूप हो और यह जगत् तुम्हारा ही एक रूप है। तुम अहंकार आदि शरीरजन्य विकारों से परे हो और आकाश की भाँति सर्वत्र विद्यमान हो। अष्टावक्र आगे कहते हैं कि जिस प्रकार कंगन, बाजूबंद और नूपुर देखने और उपयोग में भिन्न-भिन्न हैं, पर सभी एक ही तत्त्व स्वर्ण से बने हैं, उसी प्रकार सृष्टि के भिन्न-भिन्न अवयवों में मूल तत्व आत्मा ही है। भेद सिर्फ शरीर और आकृति का है।
यह मैं हूँ, यह मैं नहीं है, यह विभाग करना अब छोड़ दो और संपूर्ण सृष्टि एक आत्मा अर्थात् तुम हो ऐसा मानकर संकल्परहित हो जाओ और सुखी रहो। 
तुम आत्मा के सिवाय संसार में और कुछ नहीं है। यह आत्मा न तो संसारी है, क्योंकि यह संसार में लिप्त नहीं है और असंसारी भी नहीं है, क्योंकि संसार उसी की अभिव्यक्ति है।
 ज्ञानी संसार में एकरूपता देखता है ऐसा व्यक्ति वासनारहित और चैतन्य मात्र है। इस व्यक्ति को परम शांति प्राप्त होती है।
 व्यक्ति का बंधन संसार के प्रति उसकी आसक्ति, मोह और वासना है। दूसरा बाँधने वाला कोई नहीं है। व्यक्ति स्वयं ही अज्ञानवश बंध जाता है। दूसरी ओर ज्ञानप्राप्ति के बाद ज्ञानी की दृष्टि बदल जाती है और वह अपने को शरीर, मन और अहंकार से परे शुद्ध चैतन्य आत्मा मानता है, जिससे सृष्टि और आत्मा में अंतर समाप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में न तो बंधन होता है और न ही मोक्ष।"
अष्टावक्र कहते हैं कि हे जनक, तुम चैतन्य आत्मा होने के कारण संसार रूपी समुद्र में एक ही थे और आगे भी एक ही रहोगे। अब तक अज्ञानवश तुमने अपने को भिन्न शरीर समझा था। यही बंधन था। अब न तो बंधन है और न ही मोक्ष।
तुम कृतकृत्य हो चुके हो, अब सुखपूर्वक इस संसार में रहो। चित्त का स्वभाव है संकल्प और विकल्प इनके कारण ही विचार पैदा होते हैं। योजनाएँ बनाई जाती हैं। उनकी पूर्ति हेतु तरीके जुटाए जाते हैं। इस काम में शरीर और इंद्रियाँ जुट जाती हैं। अहंकार के कारण कर्म करने वाला मनुष्य कर्ता बन जाता है और वह अपने हो कर्मजाल में बंध जाता है। अष्टावक्र जनक से कहते हैं कि अपने मन को संकल्प और विकल्प से दुखी न करो। अब शांत होकर आनंद से परिपूर्ण अपने स्वरूप में रहो।
अष्टावक्र आगे कहते हैं कि यह ध्यान, धारणा, समाधि अज्ञानियों के लिए हैं। ये ज्ञानप्राप्ति के साधन हैं तुझ जैसे आत्मज्ञानी के लिए अब ध्यान और धारणा का त्याग करना ही उचित है तुझ मुक्त आत्मा के लिए विचार-विमर्श की कोई आवश्यकता नहीं है। अष्टावक्र कहते हैं कि हे जनक, शास्त्र अनेक प्रकार के हैं। इनमें विभिन्न मत हैं। ये तो नक्शे मात्र हैं, जिनके सहारे व्यक्ति लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है। ज्ञान तो अपने अंदर है जो तुम प्राप्त कर चुके हो। अनेक शास्त्रों के अध्ययन से या उनके सुनने से मन में विचार की तरंगें और बढ़ जाती हैं और तर्क-वितर्क बढ़ते चले जाते हैं। एक ओर भ्रम बढ़ता है तो दूसरी ओर पाहित्य आने से अहंकार बढ़ता चला जाता है। अतः आत्मज्ञानी के लिए शास्त्र ज्ञान का विस्मरण जरूरी हो जाता है, तभी शांति प्राप्त होती है। बाह्य अनुभवों का विस्मरण, आत्मस्मरण के लिए आवश्यक है।
अष्टावक्र आगे कहते हैं, "हे ज्ञानस्वरूप जनक, यह मन बड़ा चंचल है, यह विषयों की ओर लुभायमान रहेगा ही मनुष्य कितना भी सुख भोगे वह तृप्त नहीं होता है। अनेक कर्म करने के बाद भी अधिकाधिक प्राप्ति की लालसा में वह कर्म की ओर प्रेरित रहता है। समाधि की अवस्था में भी उसकी चंचलता जातो नहीं है। थोड़े समय बाद वह फिर विषयों की ओर भागता है। "मनुष्य आजीवन प्रयास करता रहता है धन, यश, पद, प्रतिष्ठा, ज्ञान, विद्वत्ता आदि सभी प्रयास से मिलते हैं। यदि मनुष्य ने प्रयास न किया होता तो संसार आज इतना सुंदर और उपयोगी न होता। मनुष्य परमात्मा की खोज भी इसी तरह प्रयास करके करना चाहता है। पर प्रयास से लोग दुखी और अशांत भी होते हैं। तनावग्रस्त होने के कारण विक्षिप्त और उद्वेलित रहते हैं और यह स्थिति आत्मबोध में बाधा है। मनुष्य चित्त की शांति प्राप्त करके ही आत्मज्ञानी हो सकता है। कुछ भाग्यवान लोग ही इस उपदेश को ग्रहण कर पाते हैं और निर्माण को प्राप्त कर पाते हैं।"
इसी क्रम में अष्टावक्र कहते हैं कि कुछ कर्म जैसे साँस लेना और छोड़ना पाचन संस्थान, आँख खोलना बंद करना आदि स्वाभाविक कर्म हैं। यदि कोई व्यक्ति स्वाभाविक कर्म करने में भी आलस करता है तो वह आलसी शिरोमणि है। वह ज्ञानी नहीं है। ज्ञानी तो प्रयासरहित अर्थात् फलाकांक्षा छोड़कर कर्म करता है।
अष्टावक्र आगे कहते हैं कि आम आदमी इस ढूंढ़ में फैसा रहता है कि मैंने यह कर दिया, पर यह नहीं किया। यह भी करना चाहिए था। जब वह इस द्वंद्र से मुक्त हो जाता है तब वह धर्म, अर्थ, काम के अलावा मोक्ष के प्रति भी उदासीन हो जाता है। यदि मनुष्य के मन में मोक्ष की कामना है तो वह मोक्ष से बहुत दूर है। संसार के अधिकांश लोग विषयों में लोलुप हैं और वे रागी कहलाते हैं। इनका पूरा चितन अधिक से अधिक प्राप्त करने में लगा रहता है। ऐसे लोग निकृष्ट से निकृष्ट कर्म करने में भी नहीं चूकते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो विषयों से द्वेष करते हैं। ये लोग विरक्त कहलाते हैं। ये लोग सांसारिक विषयों, धन-दौलत, स्त्री-पुत्र आदि को बुरा-भला कहते हैं। ये लोग भी दुखी रहते हैं। आष्टावक्र कहते हैं, जो लोग ग्रहण और त्याग दोनों से रहित हैं वह न तो विरक्त हैं और न रागवान। ऐसे निर्दद्र लोगों को ही शांति मिलती है। दरअसल मोक्ष कोई स्थान नहीं है जहाँ जाना होता है। यह चित्त की शांत दशा है।
जब तक मन में अच्छा-बुरा शुभ-अशुभ ग्रहण और त्याग की भावना रहती है तब तक स्पृहा (तृष्णा) जीवित रहती है। यह तृष्णा ही अभिषेक की दशा है। इसी प्रकार त्याग भी अगर उच्च भोगों जैसे स्वर्गादि के लिए किया जाए तो वह भी तृष्णा है। सांसारिक मनुष्य थोड़े से भोगों की तृष्णा करता है और घर-परिवार, धन, सुख, नौकरी चाहता है, पर तथाकथित त्यागी वो इन छोटे से सुखों को त्यागकर स्वर्ग, मोक्ष आदि की महातृष्णा करते हैं। 
अष्टावक्र कहते हैं कि यह तृष्णा ही संसाररूपी वृक्ष का अंकुर है। तृष्णा छोड़े बगैर मुक्ति संभव नहीं है।

शेष अष्टावक्र गीता भाग 4 में



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