काम क्रोध मद लोभ सब नरक के पंथ
आंतरिक शत्रु कौन है? आंतरिक शत्रु है- काम, क्रोध,मोह, लोभ, ईर्ष्या, हिंसा, कामवासना इत्यादि।
आंतरिक शत्रु (काम, क्रोध, मोह, लोभ,ईर्ष्या) पर विजय पाना ही वास्तविक विजय है। अपने विरुद्ध खड़े होना ही वास्तविक युद्ध है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी आंतरिक वृत्तियों का ही संघर्ष है। यह मानव शरीर ही धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र है। इस क्षेत्र में लड़ने वाली वृत्तियाँ दो हैं। दैवी संपद और आसुरी संपद। युद्ध तो सभी कर रहे हैं किंतु कोई कृष्ण के साथ है तो कोई कृष्ण के विरुद्ध।
अपने आंतरिक शत्रु को मारो, प्रशंसनीय बात है। लेकिन तुच्छ सांसारिक भोग के लिए अपने आंतरिक शत्रु रूपी काम, क्रोध, मोह, लोभ को बढ़ावा देना बिल्कुल दूसरी बात है और धिक्कार है।
इच्छा ही जन्म का कारण है।
बाहरी दुश्मन अधिक से अधिक भौतिक क्षति पहुंचाएगा, किन आंतरिक दुश्मन पूरे जीवन का ही सर्वनाश कर देता है।
जिन्हें आदर्श बनाना चाहिए था वो अतीत के बादल में पता नहीं कहां खो गए हैं? और दो कौड़ी के सेलिब्रिटी तुम्हारे आदर्श बन गए हैं। पहले जो ज्ञानी ऋषि हुआ करते थे, वो सेलिब्रिटी हुआ करते थे। किंतु अब घटिया सेलिब्रिटी ज्ञानी बन चुके हैं। वो हमें ध्यान दें रहे हैं- जीवन कैसे जीना है? बच्चे कितने पैदा करने हैं? और इन घटिया सेलिब्रिटी का युवा पीढ़ी पर बहुत घातक प्रभाव पड़ रहा है।
श्रीमद्भगवद्गीता में भी स्वयं के विरुद्ध युद्ध का चित्रण है। तुमने अपनी असली पहचान खो दी है। तुम जो स्वयं को मानकर बैठे हो वह वास्तव में तुम हो नहीं। तुमने स्वयं को शरीर समझ रखा है, किंतु आध्यात्म कहता है कि तुम शरीर नहीं हो।
कबीरदास जी कहते हैं कि मैंने पूरी दुनिया में बुराई देख ली, परंतु मुझे कहीं बुराई नजर नहीं आई।
और जब मैंने स्वयं के अंदर देखा, तो मुझे सारी बुराई सेम के अंदर दिखी। कहने का तात्पर्य है कि हमारे दुश्मन हमारे भीतर है। हमें अपनी ही खिलाफ जंग लड़ना है। हमें अपने ही विरुद्ध खड़े होना है। हमें दूसरे की कमियों को छोड़कर अपने ही कमियों को दूर करना है। और जो हमारी कमियां हमें बताएं, वह सबसे बड़ा मित्र है। कबीरदास जी कहते हैं कि अपने निंदक को अपने समीप रखो। ताकि वह तुम्हारी नींद करके तुम्हारे कमियों को बता सके ताकि तुम उसको सुधार सको। हमारे जीवन में कबीर का बहुत बड़ा महत्व है। परंतु तुम कहोगे कि नहीं, कबीर कैसे सुधारेंगे देश को?