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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

मन के द्वंद सुख और दुख

मन के द्वंद सुख और दुख

मन के द्वंद सुख और दुख




श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीभगवान ने कहा है कि जो पुरुष ना तो उच्चतम पद पाने पर हर्षित होता है और ना ही अपमान होने पर दुखी होता है, वही यथार्थ पुरुष है। उसी को स्थिर बुद्धिवाला पुरुष कहते हैं।
जो पुरुष सम्मानित होने पर ना तो हर्षित होता है और ना ही अपमानित होने पर दुखी होता है वही स्थिर बुद्धिवाला पुरुष है। जो ऐसा करता है वही गीता का पालन करता है और वही श्रीकृष्ण के समीप होता है। वास्तव में वही एकमात्र धर्म का पालन करता है। किंतु ये मन बड़ा चंचल है, छोटी सी वस्तु ही पाकर हर्षित हो जाता है और छीन जाने पर विषाद में पड़ जाता है। आजकल धर्म की नाम पर जाति, कुल, पंथ का भेदभाव देखने को मिलता है। किंतु वास्तव में धर्म का अर्थ एक परमात्मा ने विश्वास करके मुक्ति के लिए कार्यरत रहना है।
क्या आपको पता है कि यह जवानी हमें क्यों दी गई है? यह जवानी हमें वासनाओं में लिप्त होने के लिए नहीं दी गई है बल्कि ईश्वर से प्रीति के लिए दी गई है। ईश्वर हमें धन-ऐश्वर्य इसलिए नहीं देता कि हम उसमें आशक्त हो जाए बल्कि हम उसमें अनाशक्त होकर उस अविनाशी परमात्मा का ध्यान व चिंतन करें। 
इस संसार की सभी वस्तुएं निरंतर बदलती रहती हैं केवल वही एकमात्र अविनाशी परमात्मा ही सत्य है जो कभी बदलता नहीं। वह निराकार परमात्मा सभी भूतों से परे है। इसलिए हमारे जन्म का उद्देश एकमात्र परमात्मा को पाना होता है। लेकिन मुड़ बुद्धि वाले पुरुष वासनाओं में लिप्त हो जाते हैं और बहुत दुख पाते हैं क्योंकि परमात्मा ही एकमात्र सुखों का स्रोत है। अतः हमें काम, क्रोध, मोह, लोभ, और इच्छा का त्याग कर निरंतर परमात्मा का चिंतन करना चाहिए।
मनुष्य अपने मन और इंद्रियों का गुलाम बन कर दुखद जीवन जीता है और अपनी इच्छाओं को पूर्ति करने के लिए यथासंभव प्रयास करता है और इच्छाएं पूरी ना होने पर विराट दुख पाता है इसीलिए गीता में श्री भगवान ने कहा है कि मनुष्य को इच्छा रहित होकर कर्म करना चाहिए इससे वह परम श्रेय को प्राप्त करेगा।

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