परमतत्व आध्यात्म
अध्यात्म दो शब्दों से मिलकर बना है । अधि+आत्म । अधि का अर्थ बाहुल्य(गहराई से) और आत्मा का तात्पर्य 'स्वयं' से है। स्वयं को गहराई से जानना ही अध्यात्म है। आध्यात्म को लेकर अनेक-अनेक भ्रांतियां प्रचलित है। कोई कहता है नहाना, धोना, पूजा पाठ, कर्म कांड ही आध्यात्म है। तो कोई कहता है योग साधना करना अध्यात्म है। परंतु वास्तव में आध्यात्म का अर्थ स्वयं को आत्मभाव में स्थित करना( स्वयं को तत्वज्ञान से जान लेना) है। आत्मा का ना तो कोई आकार है , न हीं कोई रूप रंग । आत्मा एक है। आत्मा पूर्ण है इसलिए वह ना कुछ करता है न कुछ भोगता है। आत्मा शान्त और अविनाशी है। आत्मा ही परमात्मा है जो अनन्त है। यदि कोई किसी की मृत्यु के कहता है कि भगवान उसकी आत्मा को शान्ति दे, तो समझलो वो आत्मा को नहीं जानता,वो अनाड़ी है। आत्मा शान्त है वो न तो जन्म लेती है और न ही मरती है। आत्मा ही परमात्मा है ,जैसे तुमने अपने किसी शत्रु को परमशत्रु कह दिया,लेकिन वास्तव में वो आपका शत्रु ही है। ठीक उसी प्रकार आत्मा को परमात्मा कह दिया। वास्तव में ध्यान,योग ,उपासना आन्तरिक स्वच्छता के लिए हैं। एकमात्र आत्मा ही सत्य है, बाकी सब मिथ्या है।
अहंकारवश जीव अपने आप को कर्ता और भोक्ता मानता है परंतु वास्तव में परमात्मा ही एकमात्र कर्ता है। आत्मा सदैव मुक्त और असंग है। मृत्यु शरीर की होती है, आत्मा की नहीं क्योंकि आत्मा अजन्मा तथा अविनाशी है। शरीर प्रत्येक क्षण मर रहा अर्थात परिवर्तनशील है। आत्मा नित्य और सत्य है, और सत्य एक होता है अनेक नहीं। आत्मा पूर्ण है इसलिए वह विकाररहित है। आत्मा को लेकर कई भ्रांति प्रचलित है कोई कहता है कि आत्मा अंदर है, बाहर है ,आत्मा आती है, जाती है ,आत्मा बोतल में बंद है, परंतु वास्तव में आत्मा सर्वव्यापी है ।
आत्म सदैव शांत रहती है जबकि मन अशांत रहता है। और मन की उच्चतम अवस्था को आत्मा कह दिया गया । अज्ञान वश मनुष्य अपने को शरीर मात्र मानता है और मृत्यु से डरता है।
मन को उच्चतम बिंदु तक ले जाने को ही आध्यात्म कहते हैं।
मान लो कि तुमने कोई गलती करी और तुम्हें उसकी सजा हो गई, यह संदेश तुम्हारे पिता तक पहुंच गई और वह तुम्हें छुड़ाने के लिए यथासंभव प्रयास करने लगे। जरा सोचो जो सांसारिक पिता मोह के कारण तुम्हें बचाने का यथासंभव प्रयास करेगा। तो फिर वह परमात्मा ,जो परमपिता है, वह हमें बचाने के लिए क्या नहीं करेगा? परमपिता परमात्मा हमें बचाने के लिए विविध अवतार लेता रहता है। श्रीकृष्ण ही साकार हैं जिन्होंने गीता का हमें उपदेश दिया और श्रीकृष्ण ही अविनाशी, अनंत ,निराकार परमात्मा भी है।
अध्यात्म अर्थ है - स्वयं को भली-भांति जानना।
तो फिर ईश्वर कौन है और ईश्वर कैसे प्राप्त हों?
ईश्वर अंदर और बाहर का वो प्रकाश है जो हमें सत्य और धर्म की ओर ले जाता है। ईश्वर हमें कहीं से प्राप्त नहीं होंगे बल्कि वह पहले से ही हमें प्राप्त हैंं। बस हम उनको भूल गए हैं जरुरत है तो उन्हें ज्ञान के द्वारा पुन: याद करने की। हम अपनी मूल आधार भूल चुके हैं। नहाना कैसे है? ,दान कैसे करना है?, सोना कैसे हैं?, पूजा पाठ कैसे करना है? यह बड़ी बचकानी और हास्यपद बातें हैं।
जीव अपनी आशाओं और कामनाओं के बंधन में बंधा हुआ है। जबकि आत्मा आशारहित और इच्छारहित है। भूख और प्यास प्राण के धर्म है, सुख और दुख मन के धर्म हैं, जल और मृत्यु शरीर के धर्म हैं, आत्मा के नहीं। जो पुरुष हानि लाभ में ,जय पराजय में, मान अपमान में ,अमीरी गरीबी में ,दुख सुख में एक सम रहता है, वही श्रेष्ठ है।
जो इस जीवन की अंतिम लक्ष्य को समझ सके वही यथार्थ है।
हरि भजन की नाम पर कितनी भ्रांतियां प्रचलित है, भजन वो है जो शांति देता है ,भजन वो नहीं जो उत्तेजित करता है। किसी धार्मिक समारोह में महिलाएँ गाना गा रही है- 'राजा इंद्र ने बाल्टी मंगाई' ये भजन है क्या? न मीरा के भजन, ना सूर के भजन, ना कबीर के भजन , न तुलसी की बात ,न कबीर की याद।
धर्म के नाम पर कचरा- गीता और उपनिषद कहते हैं वासनाओं को छोड़ो, कामनाओं को छोड़ो ,आशक्ति छोड़ो। और आज के धर्म गुरु धर्म के नाम पर कचरा दे रहे हैं- ये करने से मनोकामनाएं पूरी होती है। ये उपाय करने से घर में धन की बारिश होती है।
जो आत्मज्ञानी होता है वो वाशनाओ के चंगुल में नहीं फँसता। किन्तु मूढ़ बुध्दि वाला पुरुष वाशनाओ में लिप्त हो जाता है। वाशनाओ में सबसे घातक है कामवाशना।
अध्यात्म के नाम पर भ्रांतियां प्रचलित है, आत्मा को लेकर बहुत अफवाह फैली है, कोई आत्मा को बोतल में बंद कर रहा है, तो कोई आत्मा को शरीर में प्रवेश करते हुए देखता है, कोई आत्मा से बातें करता है। जहां भौतिकवाद है, वहीं दुख है, वहीं पीड़ा है। जो आध्यात्मिक है वो मुक्त है, वो स्वतंत्र है। जो श्रीकृष्ण की समीप है वह इन अफवाहों से कोसों दूर है। आत्मा के बाद दूसरा कोई सत्य नहीं है सब मिथ्या है, मिथ्या से आनंद नहीं होता यदि होता भी तो क्षणिक होता है।
अध्यात्म के बाद में आता है - मुक्ति और बंधन में स्पष्टता? मुक्ति और बंधन दरअसल ज्ञान का परिणाम है। लोग कहते हैं - जैसी मति होती है, वैसी गति होती है। इसलिए तुम स्वयं को मुक्त मानोगे तो तुम मुक्त हो जाओगे और तुम अपने को बंधन में मानोगे तो तुम बंधन में हो जाओगे।
अध्यात्म ही जीवन का अंतिम लक्ष्य और सार है।
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