परमात्मा का दिगदर्शन
आत्मा परमात्मा में कोई भिन्नता नहीं है। मान लो कि तुम्हारा कोई शत्रु है लेकिन तुमने उसे आवेश में आकर कह दिया कि यह मेरा परम शत्रु है , लेकिन है वह तुम्हारा शत्रु ही है, ठीक उसी प्रकार आत्मा को ही परमात्मा कह दिया गया। आत्मा अकल्पनीय है अर्थात आत्मा कल्पना से परे है। आत्मा अनंत है। आत्मा अजन्मा है।
आत्मा नित्य है अर्थात आत्मा परिवर्तनशील नहीं है। आत्मा आकाश की तरह है जो घड़े की अंदर भी है और घड़े के बाहर भी है।
आत्मा को लेकर एक प्रसिद्ध भ्रांति है कि हम सबके अंदर आत्मा है और परमात्मा एक विशालकाय अनंत है तथा हमारी मदद के बाद आत्मा उस परमात्मा में विलीन हो जाएगी। यह सब बातें बहुत बचकानी और हास्य जनक बातें हैं। आत्मा ही एकमात्र है जो परम सत्य है । बाकी सब मिथ्या और परिवर्तनशील है। आत्मा ही है जो विश्वसनीय और परिवर्तनरहित है। जब भी हम आत्मा की बात करते हैं तो उसमें कुछ धूँआ जैसी आकृति नजर आती है और उसी को हम आत्मा कह देते हैं। परंतु वास्तव में ना तो आत्मा का कोई रुप है, न रंग है, न गंध है, न स्वाद है, आत्मा अनंत है।
दुनिया में कोई भी चीज विश्वसनीय नहीं है क्योंकि वो समय के अनुसार बदलती रहती हैं, इस स्थिति में आत्मा ही एकमात्र है जो बदलता नहीं ,किंतु आत्मा कोई चीज नहीं है। आत्मा ही एकमात्र सत्य है क्योंकि सत्य समय के साथ नहीं बदलता। और जहाँ सत्य है वहीं आनंद है। मन बदलता है, शरीर बदलता है, बुद्धि बदलती है ,अनुभव बदलता है, किंतु आत्मा ही बदलता। वही एक भरोसा का पात्र है। अब आत्मा के बारे में तो जान गए । आई अब दिल की बारे में भी जान देते हैं, जिस दिल पर काफी सारे गाने बने, प्रेमी प्रेमिका को लेकर । प्रेमी प्रेमिका के गाने में कहा जाता है कि दिल तो पागल है ,दिल में तुम हो, दिल अंदर है ,दिल बाहर है ,दिल तुम्हारे पास है और ना जाने क्या क्या?
इसी को लेकर एक प्रचलित कहावत है कि
दिल की सुनूँ या मन की?
आईए, जान ही लेते हैं कि दिल क्या है? जिसको लेकर इतनी सारी बातें कही गई है। वास्तव में दिल का मतलब हृदय से है।
गीता में एक श्लोक है ,जिसका अर्थ कुछ इस प्रकार है -
(श्रीकृष्ण कहते हैं)- मैं सभी लोगों के हृदय में हूं।
उपरोक्त बातें सुनने के बाद मुझे उपरोक्त वाक्य कुछ इस प्रकार प्रतीत होता है।
श्रीकृष्ण की सुनूँ या मन की?
अगर कोई अज्ञान वश करता है कि ''ये मेरी आत्मा है।" इसका मतलब कि तुमने आत्मा को वस्तु (पदार्थ) बना दिया।
यह तो उसीप्रकार हुआ जैसे किसी विशाल समुद्र में रहने वाली मछली कहती है कि यह मेरा समुद्र है।
परंतु वास्तव में वो समुद्र में है।
कोई व्यक्ति कहता है कि आत्मा को शांति दे , आत्मा शरीर के अंदर है, आत्मा भटकती है ,आत्मा शरीर के बाहर है और न जाने क्या क्या? , यदि कोई ऐसा कहे तो समझ जाना कि वह बहुत अनाड़ी है। उसे आत्मा के बारे में कुछ पता नहीं है। आत्मा को रूह (प्राण) मत बनाओ।
जन्म मृत्यु शरीर का धर्म है, दुख सुख मन के धर्म हैं, भूख प्यास प्राण के धर्म हैं, आत्मा इन सबसे परे है। आत्मा अचिंत्य है।
उपनिषदों के ऋषियों ने जानना चाहा कि मैं कौन हूं? मैं क्या अपनी उम्र हूं? उम्र तो सीमित होता है तो मैं उम्र नहीं हूं। क्या मैं जाति हूं? इसका संबंध तो केवल शरीर से है, और शरीर तो सीमित और परिवर्तनशील है। तो फिर मैं ना तो जाति हूं और ना ही शरीर हूं। तो उपनिषदों के ऋषियों ने खुद को जानना चाहा । अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मैं प्रकृति नहीं हूँ। अर्थात मैं प्रकृति से परे हूं।
---------------------------------------------------
इस अभियान को अधिक लोगों तक ले जाने के लिए तथा ऐसे ही लेख और उपलब्ध कराने के लिए आपका सहयोग जरूरी है। हमारे कार्य को सहयोग देने के लिए ऊपर दिख रहे विज्ञापनों (advertisement) पर क्लिक कीजिए, ताकि विज्ञापन से प्राप्त हुई राशि से वेदांत , उपनिषद और गीता को जन-जन तक पहुंचाया जा सके। ऊपर दिख रहे विज्ञापन पर क्लिक कीजिए। अधिक जानकारी के लिए " About " में जाएँ।