योगयुक्त जीवन
जब आध्यात्मिक जीवन की बात होती है तो मन में एक चित्र बनता है जिसमें अधिकांशता अध्यात्म जीवन का वर्णन कुछ इस प्रकार होता है
कि आध्यात्मिक लोग बड़े ही अनुशासित और नियमबद्ध होते हैं। हम आध्यात्मिक लोगों के बारे में यही सोचते हैं कि आध्यात्मिक लोग सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान आदि करके योग साधना में लींन हो जाते हैं उसके बाद दो-तीन घंटा पूजा पाठ करते हैं, जप करते हैं, ध्यान करते हैं, यज्ञ करते हैं, दान देते हैं, इत्यादि। किंतु वास्तव में अध्यात्म का इन सभी कर्मकांड से दूर दूर तक कोई संबंध नहीं है। आत्मज्ञानी चाहे महल में रहे, चाहे वन में वह सदैव अपने आत्मज्ञान में मग्न रहता है। उसके लिए परमात्मा ही एकमात्र सत्य है बाकी सारा संसार मिथ्या है। वह संसार में होते हुए भी संसार के भोग में लिप्त नहीं होता , जैसे कमल का पत्ता पानी में होते हुए भी पानी में लिप्त नहीं होता।
आत्मज्ञानी को ना तो घर छोड़कर सन्यास लेने की आवश्यकता है और ना ही जंगल में जाकर से तपस्या करने की। वास्तव में आत्मज्ञानी ही श्रेष्ठ योगी है। वहाँ आत्मज्ञानी सोते हुए, नहाते हुए, खाना खाते हुए ,चलते हुए, कुछ भी नहीं करता, क्योंकि वह स्वयं को कर्ता नहीं मानता। परमात्मा एक मात्र कर्ता है ,हम सब परमात्मा की कठपुतली (उपकरण) है। पहले से प्राप्त भोग व्यंजन में संतुष्ट होकर आत्मज्ञानी ईश्वर का प्रसाद समझकर ग्रहण करता है किंतु उस भोग में आशक्त नहीं होता। कर्म दोनों करते हैं- ज्ञानी और अज्ञानी। किंतु अज्ञानी फल की इच्छा से कर्म करता है और ज्ञानी बिना फल की इच्छा से कर्म करता है। बाहर की दृष्टि से दोनों के कर्म समान है, किंतु वास्तव में दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं। अज्ञानी के कर्म में स्वार्थ और कामना है , किंतु ज्ञानी के कर्म में निस्वार्थ और निष्काम है। कर्म अति आवश्यक है जीवन के लिए।
यह संसार कर्म की खेती है। कर्म के बिना जीवन संभव नहीं किंतु कर्म कामनारहित (इच्छारहित) हो, तो वह कर्म श्रेष्ठ होता है।
भोग भोगना बुरी बात नहीं है अपितु भोग में आशक्ति रखना बहुत बुरी बात है। जो सुख सुविधाएं प्राप्त है उसे ईश्वर का भेंट समझकर भोगों, मगर उसमें आशक्ति ना रखो। जैसे राम जी अनाशक्त थे, अयोध्या जैसा राज्य, सीता जैसी पत्नी, सुकुमार जैसे दो बालक, सोने की लंका, रामजी सब त्यागते जा रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि संसार में तो रहो , मगर संसार के ही ना बन जाओ। एक योगी के लिए दिन रात के समान है, अर्थात जब सारा मनुष्य अपनी इच्छाओं को पूरी करने के लिए दिन में जो कर्म करता है तब योगी पुरुष के लिए वह झूठे सपने के समान होता है। योगी के लिए एक परमात्मा ही सत्य है, बाकी सारा संसार में मिथ्या है। इसलिए अपना मन सत्य में लगाता है अर्थात परमात्मा में लगाता है और इस संसार रुपी बंदीगृह (जेल) से मुक्त हो जाता है।
वह स्वयं को कर्ता ना मानकर स्वयं को शुद्ध चैतन्य मानता है और इसलिए वह सांसारिक कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता।
यदि आपका प्रश्न यह है कि भोग से योग संभव है।तो उसका उत्तर है - हां
बस अनासक्त होकर भोग भोगते हुए भी मुक्ति मिलेगी, कृष्ण मिलेंगे।
भोग का अर्थ मांसाहारी भोजन नहीं है। क्योंकि किसी मूक जीव की हत्या करके उसका मांस खाने से कोई योगी नहीं बन सकता। ज्ञानी व्यक्ति का समस्त अहंकार नष्ट हो जाता है। वह स्वयं को शुद्ध चैतन्य मानता है और इच्छारहित होता है।
दरअसल इच्छा ही जन्म का कारण है। लेकिन ये कहना भी ठीक होगा कि भोग से रोग बढ़े और रोग से शोक बढ़े। ज्ञानी पुरुष स्वयं को कर्ता मानते और ना ही भोक्ता मानते हैं। आत्मज्ञान पूर्ण गुरु की कृपा से ही मिलती है। आज की कलयुग में पूर्ण गुरु मिलना बहुत मुश्किल है। योग, साधना, उपासना, यह सब केवल आंतरिक स्वच्छता के लिए हैं, इनसे सत्य को झेलने की शक्ति आती है। स्नान आदि शरीर की स्वच्छता के लिए हैं। गुरु के ज्ञान के द्वारा मन को भी स्वच्छ किया जाता है। गुरु हमें आत्मज्ञान की युक्ति बताते हैं। गुरु हमें हमसे परिचित कराते हैं। जब किसी को आत्मज्ञान हो जाता है तो भी वह जीवन पहले की तरह ही जीता है मगर सोचने और देखने का नजरिया बदल जाता है। पहले अहंकार के कारण उस भोग में आसक्त था और अब आत्मज्ञान के कारण अनासक्त हो गया।
दरअसल मोक्ष ज्ञान का ही परिणाम है इसलिए जब तक ज्ञान नहीं तब तक मोक्ष नहीं। यह तुम किसी की वेष भूसा और पहनावा देखकर उसे योगी कहदोगे तो यह उसी प्रकार है जैसे अंधा व्यक्ति टटोल कर चल रहा हो। व्यक्ति की पहचान उसके ज्ञान और गुणों से होती है। आज के कलयुग में संत या योगी भगवाधारी भीखमँगे को भी कह दिया जाता है परंतु पारमार्थिक भाषा में साधु या योगी वही व्यक्ति है जिसने आध्यात्म में काफ़ी तरक्की कर ली है। जिसप्रकार अज्ञान के कारण मरीचिका में जल दिखाई देता है, किंतु वास्तव में वह जल नहीं होता, ठीक उसी प्रकार अज्ञान के कारण आत्मा बंधन ग्रस्त दिखाई देता है किंतु वास्तव में आत्मा मुक्त और असंग होता है। यदि कोई व्यक्ति किसी के मरने पर यह कहता है कि भगवान उसकी आत्मा को शांति दे, तो वह सबसे बड़ा मूर्ख है। क्योंकि आत्मा तो पहले से ही शांत है। जिसप्रकार जिसका पेट भरा है उसके लिए भोजन बेकार है ठीक उसी प्रकार आत्म तो पहले से ही शांत है, तब अज्ञान के कारण आत्मा को शांति देने की बात भी व्यर्थ है।
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