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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

केनोपनिषद

केनोपनिषद संक्षिप्त व्याख्या

प्रश्न्न : उपनिषदों शांति पाठ क्यों आवश्यक है?
समाधान: उपनिषद कोई साधारण वार्तालाप या शब्द संग्रह नहीं है, बल्कि सब विद्याओं में श्रेष्ठ ब्रह्म विद्या है। उपनिषदों के ऋषि बड़े ऊँचे स्तर की बातें करते हैं , जो साधारण लोगों के लिए बड़ी भयानक बात हो जाती है, उपनिषदों के जो मंत्र है, वह सामान्य लोगों के रूढ़ियों को , परंपराओं को अंधविश्वास को , झूठों को , अहंकार को तोड़ने का काम करते हैं, शांति पाठ और मंत्र इसलिए आवश्यक है क्योंकि इससे साधकों को परम सत्य झेलने की क्षमता आती है। उपनिषदों में बहुत महान ज्ञान है, ब्रह्म विद्या का अधिकारी वही है कि राग, द्वेष ,सुख, दुख, शोक ,मोह, आसक्ति, काम, लोभ, आदि द्वंद मिट चुके हो। जितने भी शांति पाठ ,मंत्र ,साधना ,ध्यान, मनन ,निधि अध्ययन , आदि बताए गए हैं , यह सब इसीलिए कि जिससे साधक के अंतकरण में शुद्धता होती है। चूँकि उपनिषदों के मंत्र जनमानस के अहंकार को चोट करते हैं इसलिए शांत पाठ आवश्यक हैं।

अद्वैत: पहले शिष्य गुरु से प्रश्न्न करता है कि जिसकी प्रेरणा से हमारी समस्त इंद्रियाँ अपने अपने अर्थों में लगती हैं, वो सर्वशक्तिमान कौन है? कहानी का अर्थ ये है की यह आंख जिसकी शक्ति से देखता है, यह कान जिसकी शक्ति से सुनता है, यह मुख जिसकी शक्ति से , जिसकी प्रेरणा से बोलता है, जिसकी प्रेरणा से समस्त इंद्रियाँ अपने अपने काम में लगती हैं, जो सबका परम कारण है, वो परमदेव सर्वशक्तिमान परमात्मा कौन है?

जिसके उत्तर में उपनिषद के ऋषि (गुरु) कहते हैं कि समस्त इंद्रियों का परम कारण परमात्मा है, जिसकी प्रेरणा से समस्त जगत अपने कार्य में प्रवृत्त होता है, जो इन सबका प्रेरक है, जो मूल है, वो परब्रह्म परमात्मा है। जो समस्त जगत की उत्पत्ति का कारण है , जो समस्त जगत का आधार है, उस अविनाशी परमात्मा को जानकर योगी जीवन मुक्त हो जाता है। जो इन भौतिक आँखों से दिखाई नहीं देता परंतु जिसकी प्रेरणा से ये आँखें सब कुछ देखने में सक्षम हो रही हैं। जहाँ तक मन और बुद्धि नहीं पहुँच सकते परंतु जिसकी प्रेरणा से मन और बुद्धि अपना-अपना कार्य करने में समर्थ हो रहे हैं। जो इंद्रियों के अंतर्गत नहीं है किंतु जिसके अंतर्गत समस्त इंद्रियाँ हैं, वही परब्रह्म परमात्मा है। जो वाणी से व्यक्त नहीं हो सकता , किंतु जिसकी प्रेरणा से वाणी व्यक्त होते हैं। अर्थात जिसको वाणी से व्यक्त किया जाता है वह परब्रह्म परमात्मा नहीं है, जिसकी प्रेरणा से बोलने की शक्ति आती है वो परमात्मा है। मन और बुद्धि से जिसकी व्याख्या की जाती है वो परब्रह्म परमात्मा नहीं है, बल्कि जिसकी प्रेरणा से बुद्धि में तर्क करने की शक्ति आती है मन में मनन करने की सामर्थ आती है वह पर प्रमुख परमात्मा है अर्थात परमात्मा मन और बुद्धि से परे है।जो कानों से सुनाई तो नहीं देगा किंतु जिसकी वजह से कान सुनने में सक्षम होते हैं वही परब्रह्म परमात्मा है।

जो प्राणों का प्राण है वही परब्रह्म परमात्मा है। जो मानता है कि मैंने परमात्मा को जान लिया है , उसने निश्चय ही परमात्मा को अभी नहीं जाना है, क्योंकि परमात्मा अहंकार से परे है। महान संत कबीर साहेब का भी यही निर्णय है कि जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं हम नाहिं। परमात्मा को वश तत्व से भलि भाँति जान लेना ही ज्ञान है। यह मानव जन्म अत्यंत दुर्लभ है, यदि शरीर रहते ही परम तत्व को जान लिया तो जीवन सफल हो गया, और यदि परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ तो भारी हानि हो गई, इसीलिए धीर और ज्ञानी साधक परमात्मा को भली प्रकार से जानकर प्राणी मात्र में उसकी व्यापकता देख कर अमृत तत्व को प्राप्त कर लेते हैं। परमात्मा ने साधक में देवीय गुणों को सहयोग देकर की आसुरी वृत्तियों के ऊपर विजय प्राप्त करा दी, तो साधक को गुमान हो गया कि उसने ही दैवीय गुणों के सहयोग से आसुरी वृत्तियों का संघार किया है, लेकिन नहीं। साधक तो निमित्त मात्र है , सभी दैवीय गुण तो निमित्त मात्र है सबका करता धर्ता तो केवल परमात्मा है। गीता में जिसको श्रीकृष्ण आत्मा कहते हैं वही यहाँ परमात्मा से तात्पर्य है कि जिसको शस्त्र नहीं काट सकते, अग्नि जला नहीं सकती ,जल गीला नहीं कर सकता, वायु सुखा नहीं सकता , वही अविनाशी ,अमृत, कालातीत, परमात्मा है।

निष्कर्ष - वस्तुतः आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म ,भगवान ,ईश्वर, एक दूसरे के पर्याय है। महाराज श्रीकृष्ण जी ने गीता में जिसको आत्मा से संबोधित किया है, वही यहाँ परमात्मा से संबोधित किया गया है, अन्य उपनिषदों में उसे ब्रह्म से संबोधित किया गया है। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण जो स्वरुप और गुण आत्मा के लिए बताते हैं, बाद में वही स्वरुप और गुण अपने बारे में भी बताते हैं। अर्थात श्री कृष्ण भी परमात्मा में स्थिति वाले आत्मस्थ योगेश्वर सद्गुरु है। जो ब्रह्म विद्या श्री कृष्ण ने अर्जुन के समक्ष उपदेश किया था, वहीं ब्रह्म विद्या यहाँ पर उपनिषद के ऋषि अपने शिष्यों को उपदेशित कर रहे हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण उपदेशित गीता को समस्त उपनिषदों का सार कहा जाता है। गीता को और उपनिषदों को ब्रह्म विद्या और मोक्ष का शास्त्र का जाता है। आत्मा का जो स्वरूप श्रीकृष्ण ने गीता में बताया है वही स्वरुप उपनिषद के ऋषि अपने शिष्यों से परमात्मा का स्वरुप कहते हैं। अर्थात श्री कृष्ण गीता में कोई नई बात नहीं बताई है बल्कि पुरातन काल में वैदिक ऋषियों ने जिस सत्य को जाना था , वही सत्य श्री कृष्ण भी गीता में बताते हैं।

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